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शोध प्रबन्ध सार ...55
एवं समाज प्रबंधन में इसकी आवश्यकता आदि पर विचार किया गया है।
समाहारत: साधु जीवन की आन्तरिक व्यवस्था, उनकी नियम-मर्यादाएँ, साधुओं द्वारा किए जाने वाले विविध क्रियाओं का सार समझने में यह अध्याय एक सहायक चरण होगा। इस खण्ड लेखन का मुख्य ध्येय जन-जीवन में संयम धर्म के प्रति जागृति एवं बहुमान जगाना है। आज के युग में उपाश्रय एवं मन्दिरों से बनी दूरियां, साधु-साध्वियों के विचरण की अल्पता, ऑफिस आदि में बढ़ती व्यस्तता के कारण लोग श्रमण जीवन के आचारों को विस्मृत करते जा रहे हैं। संयम ग्रहण करना उन्हें कठिन, अप्रासंगिक एवं सारहीन प्रतीत होता है। ऐसी ही अनेक भ्रमपूर्ण अवधारणाओं का शमन करना ही इस खण्ड लेखन का अभिधेय है।
खण्ड-5 जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वांगीण अध्ययन
भारतीय संस्कृति 'श्रमण और 'ब्राह्मण' इन दो धाराओं में प्रवाहित है। श्रमण संस्कृति आध्यात्मिक जीवन का और ब्राह्मण संस्कृति सुख-समृद्धि सम्पन्न ऐहिक जीवन का प्रतिनिधित्व करती है। जैन परम्परा श्रमण संस्कृति की एक मुख्य धारा है। इस परम्परा में श्रमण का तात्पर्य पाप विरत साधक है। जैन परम्परा के अनुसार समस्त पाप कर्म की प्रवृत्तियों से बचना श्रमण जीवन का बाह्य पक्ष है तथा समस्त राग-द्वेषात्मक वृत्तियों से ऊपर उठना श्रमण का आभ्यंतर पक्ष है।
जैन धर्म में दो प्रकार की जीवन शैली का निरूपण है- 1. गृहस्थ जीवन (श्रावकाचार) 2. श्रमण जीवन (श्रमणाचार)। यद्यपि प्रत्येक साधक का अभिधेय श्रमण जीवन ही है परंतु यदि परिस्थितिवश वह उसे स्वीकार न कर सके तो अपवाद रूप में श्रावकाचार का पालन तो आवश्यक है।
मुनि जीवन की दैनन्दिन एवं सार्वकालिक आचार प्रधान क्रियाएँ श्रमणाचार कहलाती है। इसके अन्तर्गत श्रमण का समस्त आचार पक्ष समाहित हो जाता है। आज यदि विश्व की समस्त संत परम्पराओं का अवलोकन किया जाए तो जैन श्रमणाचार श्रेष्ठतम आचार के रूप में परिलक्षित होता है। परन्तु भगवान महावीर द्वारा निर्दिष्ट साधु जीवन की तुलना वर्तमान साधु जीवन से करें