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50... शोध प्रबन्ध सार
इस प्रकार त्रिविध साधना का मार्ग भारतीय एवं पाश्चात्य दोनों ही सभ्यताओं में स्वीकृत है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में श्रमण जीवन की प्रासंगिकता - आज के प्रगतिवादी संसाधनजन्य युग में नित नए साधनों का आविष्कार हो रहा है। इस स्थिति में जिनधर्म उपदिष्ट त्याग एवं निवृत्तिमय मार्ग कितना उपादेय, प्रासंगिक एवं लोक-व्यवहार में पालने योग्य है? यह एक मननीय प्रश्न है। वर्तमान परिस्थितियों पर नजर दौड़ाएं तो वैयक्तिक स्तर से लेकर राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक हम जितनी भी समस्याओं का सामना कर रहे हैं उसका मुख्य कारण है किसी भी वस्तु, व्यक्ति या क्षेत्र का अति उपयोग, असंयम एवं अनियंत्रण। आत्म नियंत्रण और इन्द्रिय संयम सफलता के मूल स्रोत हैं।
एक वाहन चालक के लिए वाहन की गति जितनी आवश्यक होती है उतना ही आवश्यक है उस पर नियंत्रण अन्यथा दुर्घटना संभव है। परंतु आज की भोगवादी जीवन शैली से संयम और नियंत्रण जैसे शब्द ही लुप्त होते जा रहे हैं। आज के मार्केट का फंडा है आवश्यकता बढ़ाओ, क्योंकि आवश्यकता ही नूतन आविष्कारों में हेतुभूत बनेगी। यही आवश्यकताओं की अभिवृद्धि वर्तमान समस्याओं का मुख्य कारण है।
अधिकांश लोगों का मानना है कि संयम मार्ग कष्टदायक एवं लोक प्रवाह के विरुद्ध है। तब फिर यह त्रिकाल प्रासंगिक कैसे हो सकता है? वर्तमान परिस्थितियों की अपेक्षा उसमें कुछ परिवर्तन एवं छूट आवश्यक है। आज के समय में संयमी जीवन के कुछ नियम दुःसाध्य या लोक व्यवहार विरुद्ध प्रतिभासित होते हैं परन्तु उन नियमों के गर्भ में समाहित आत्म कल्याण एवं आध्यात्मिक उत्कर्ष की भावना साधकों को स्वयमेव ही आत्मिक आनंद की आन्तरिक अनुभूति करवाती है।
कुछ लोग बाल दीक्षा, लूंचन, पद विहार आदि को वर्तमान समय के अनुरूप नहीं मानते। किसी अपेक्षा से वे सही हैं परन्तु संयम का मूल लक्ष्य अध्यात्म है लोक व्यवहार नहीं। दूसरी बात बाल दीक्षा का विरोध जिस Age factor के लिए किया जाता है। आज उसी आयु वर्ग के बच्चे हमारे भौतिक साधनों के प्रयोग में मास्टर बन जाते हैं। एक 30-40 वर्ष का व्यक्ति Computer, Mobile और Internet की जिन बारीकियों को नहीं जानता