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________________ का सम्बन्ध है आचारांग,221 सूत्रकृतांग,222 भगवती,223 कल्पसूत्र224 आदि अनेक प्राचीन जैनागमों में हमें उनके व्यक्तित्व एवं दर्शन का विस्तृत विवरण उपलब्ध हो जाता है। मेरी दृष्टि से इस सम्बन्ध में सन्देह का कोई अवकाश तो नहीं है कि ऋषिभाषित के वर्द्धमान, चौबीसवें तीर्थङ्कर के रूप में मान्य भगवान महावीर ही हैं। इस तथ्य का एक अन्य प्रमाण यह है कि आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के 'भावना' नामक अध्याय में उल्लेखित एवं उत्तराध्ययन225 के 32वें अध्याय में उल्लिखित महावीर के उपदेशों से ऋषिभाषित के इनके उपदेशों की पूर्ण समानता है। प्रस्तुत अध्याय के प्रारम्भ में वे कहते हैं—चारों ओर से स्रोत (आस्रव) हैं, इन स्रोतों का निवारण क्यों नहीं करते। स्रोतों का निरोध कैसे होता है? पाँच इन्द्रियों के जागृत होने पर आत्मा सुप्त हो जाती है और पाँच के सुप्त होने पर आत्मा जागृत होती है। पाँच से रज (कर्मरज) का आदान होता है और पाँच से ही रज (कर्मरज) का आदान रुक जाता है। श्रोत्र आदि पाँच इन्द्रियों के शब्दादि विषय मनोज्ञ या अमनोज्ञ होते हैं, अतः न तो मनोज्ञ के प्रति राग-भाव होना चाहिए और न अमनोज्ञ के प्रति द्वेषभाव होना चाहिए। जो मनोज्ञ के प्रति आसक्त नहीं होता और अमनोज्ञ के प्रति द्वेषित नहीं होता, जो असुप्त (जागृत) और अविरोधी होता है उसके स्रोत (आस्रव) निरुद्ध हो जाते हैं। जो मन और कषायों को जीतकर सम्यक् तप करता है वह शुद्धात्मा अग्नि में दी गई हविष् के समान प्रदीप्त होता है। इस प्रकार प्रस्तुत अध्याय पाँच इन्द्रियों और मन के संयम पर बल देता है। प्रस्तुत अध्याय की यह विषय वस्तु कुछ शाब्दिक रूपान्तरण के साथ आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के भावना नामक अध्ययन में तथा उत्तराध्ययन के प्रमाद-स्थान नामक 32वें अध्ययन में मिलती है। इससे यह प्रमाणित होता है कि यह वस्तुतः वर्द्धमान महावीर का मूल उपदेश रहा होगा। इसका एक अंश ‘देवा वि तं नमसति' दशवैकालिक की प्रथम गाथा में भी मिलता है। यह उनका मूल उपदेश था, इसकी भाषा तद्रूप थी। इसका दूसरा प्रमाण यह है कि पालि त्रिपिटक-27 में 'निगंठनातपुत्त' (निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र अर्थात् वर्द्धमान) के उपदेश में सव्व वारि वारितो' वाक्यांश पाया जाता है। इस अध्याय में भी 'सव्व वारीहिं वारिए' वाक्यांश है। स्मरणीय है पं. राहुल सांकृत्यायन ने इस 'वारि' का अर्थ जल या पानी किया है, वह उचित नहीं है। यहाँ 'वारि' का अर्थ वारण करने योग्य अर्थात् पापकर्म हैं। महावीर के उपदेश के सम्बन्ध में सूत्रकृतांग में भी 'से वारिया इत्थी सरायभत्तं' का उल्लेख है।228 ऋषिभाषित : एक अध्ययन 85
SR No.006236
Book TitleRushibhashit Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2016
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_anykaalin
File Size33 MB
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