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________________ अपनी विशिष्ट पद्धति थी और पर्याप्त संख्या में इनकी शिष्य - सम्पदा भी थी । बुद्ध का इनके प्रति समादर भाव था। प्रस्तुत अध्याय में रामपुत्त का उपदेश गद्य रूप में मिलता है। सर्वप्रथम इसमें दो प्रकार के मरणों का उल्लेख है— सुखपूर्वक मरण (समाधिपूर्वक मरण) और दुःखपूर्वक मरण (असमाधिपूर्वक मरण) । पुनः इसमें यह भी बताया गया है कि संसार के बन्धनों से मुक्ति के लिये ज्ञान, दर्शन और चारित्र का पालन करना चाहिए। साधक ज्ञान के द्वारा जाने, दर्शन के द्वारा देखे, चारित्र के द्वारा संयम करे और तप के द्वारा अष्टविध कर्मरज का विधूनन करे यहाँ यह गाथा उत्तराध्ययन के 28वें अध्ययन के समान है। प्रस्तुत अध्याय की विचारधारा का विकसित रूप हमें उत्तराध्ययन जैसे प्राचीन आगम ग्रन्थ में भी मिलता है। उत्तराध्ययन के पाँचवें अध्याय में मरण इन दो प्रकारों की विस्तृत चर्चा है, साथ ही उसके 28वें अध्याय में ज्ञान के द्वारा जानने, दर्शन के द्वारा श्रद्धा करने, चारित्र के द्वारा परिग्रहण और तप द्वारा आत्मा के परिशोधन की बात कही गयी है। उत्तराध्ययन भी तप के द्वारा अष्टविध कर्मों के निर्जरा की बात कहता है, फिर भी ऋषिभाषित का यह पाठ उत्तराध्ययन की अपेक्षा अधिक प्राचीन है। चूंकि इसकी भाषा उत्तराध्ययन की अपेक्षा प्राचीन है। दूसरे इसमें 'दसणेण सद्दहे' के स्थान पर 'दसणेण पासित्ता' पाठ मिलता है, जो अधिक प्राचीन है, क्योंकि जैन परम्परा में दर्शन शब्द का श्रद्धापरक अर्थ एक परवर्ती घटना है। आचाराङ्ग में दर्शन देखने के अर्थ में आता है जबकि सर्वप्रथम उत्तराध्ययन में दर्शन का अर्थ श्रद्धा किया गया है । पुनः इससे ऐसा लगता है कि वर्तमान में जैन परम्परा में आज कर्म की जो अवधारणा है, उसका मूल भी रामपुत्त के दर्शन में रहा होगा। इन आधारों से यह निश्चित होता है कि रामपुत्त महावीर एवं बुद्ध से ज्येष्ठ श्रमण परम्परा के प्रतिष्ठित आचार्य थे, साथ ही ऋषिभाषित, सूत्रकृताङ्ग और पालि त्रिपिटक के रामपुत्त एक ही व्यक्ति हैं। इन्हें उद्दक- रामपुत्त भी कहा गया है। 24. हरिगिरि ऋषिभाषित 191 के चौबीसवें अध्ययन में हरिगिरि के उपदेशों का संकलन है। इन्हें अर्हत् ऋषि कहा गया है। हरिगिरि के सम्बन्ध में हमें ऋषिभाषित के अतिरिक्त अन्य स्रोतों से कोई सूचना उपलब्ध नहीं होती । अतः इनके व्यक्तित्व सम्बन्ध में अधिक कह पाना कठिन है। जहाँ तक इनके उपदेशों का प्रश्न है ऋषिभाषित : एक अध्ययन 77
SR No.006236
Book TitleRushibhashit Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2016
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_anykaalin
File Size33 MB
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