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________________ उत्तराध्ययन सूत्र182 (18/19, 22) में भी उनका उल्लेख प्राप्त होता है। इसमें उन्हें संजय का गुरु या आचार्य तथा भगवान् और विद्याचरणपारगा कहा गया है। इससे उनका महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। इस प्रकार ऋषिभाषित के संजय और गर्दभिल्ल दोनों के ऐतिहासिक व्यक्ति होने की पुष्टि उत्तराध्ययन सूत्र से हो जाती है। जैन परम्परा में इनके अतिरिक्त आचार्य कालक के समकालीन अवन्ति के राजा गर्भभिल्ल का भी उल्लेख मिलता है, जिन्होंने कालक की बहिन साध्वी सरस्वती का अपहरण किया था। किन्तु, ये गर्दभिल्ल भिन्न व्यक्ति हैं। इस सम्बन्ध में सन्देह का कोई अवकाश नहीं है कि उत्तराध्ययन सूत्र और ऋषिभाषित के गद्दभाल/दगभाल एक ही व्यक्ति हैं। जहाँ तक ऋषिभाषित में वर्णित इनके उपदेश का प्रश्न है उसमें प्रथम तो ये यह बताते हैं कि कर्म हिंसा से युक्त (परिशांत) होते हैं, किन्तु बुद्ध हिंसा से रहित होते हैं और इसीलिये वे पुष्करिणी में रहे कमल पत्र की तरह रज (कर्म रज) से लिप्त नहीं होते हैं। इसके पश्चात् समग्र अध्याय पुरुष की प्रधानता और नारी की निन्दा से भरा हुआ है। सर्वप्रथम पुरुष की प्रधानता के सम्बन्ध में कहा गया है कि सभी धर्म पुरुष से प्रारम्भ होते हैं और पुरुष प्रवर, पुरुष ज्येष्ठ, पुरुष आश्रित, पुरुष प्रकाशित, पुरुष समन्वित और पुरुष केन्द्रित होते हैं। जिस प्रकार व्रण शरीर आश्रित होते हैं, वाल्मीक पृथ्वी आश्रित होते हैं, कमल जल आश्रित होते हैं और अग्नि अरणी (वृक्ष विशेष की लकड़ी) के आश्रित होती है, इसी प्रकार धर्म पुरुष के आश्रित होते हैं। द्रष्टव्य यह है कि यहाँ ऋषिभाषित के संस्कृत टीकाकार एवं शुब्रिग ने तथा प्रस्तुत अनुवादक ने धर्म का तात्पर्य ग्राम्यधर्म अर्थात् मैथुनाभिलाष बताया है, किन्तु मेरी दृष्टि में यहाँ धर्म इस अर्थ में नहीं है, अपित् धर्म धार्मिक परम्पराओं या धार्मिक सम्प्रदायों के ही अर्थ में प्रयुक्त है। जैन धर्म में दस कल्पों में पुरुष ज्येष्ठ कल्प है, जो यह मानता है कि धार्मिक व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में पुरुष ही प्रधान है और सौ वर्ष की दीक्षित आर्या के लिये भी सद्य दीक्षित पुरुष वन्दनीय है। इस प्रकार इसमें पुरुष की ज्येष्ठता का प्रतिपादन किया गया है। पुरुष की इस ज्येष्ठता की व्यवस्था को महावीर एवं बुद्ध ने भी अपनी संघ व्यवस्था में स्वीकार किया था, अतः धर्म शब्द का अर्थ धर्मसंघ ही लेना चाहिए, न कि आचाराङ्ग आदि की शैली पर ग्राम्य-धर्म अर्थात् कामवासना को। __ अध्याय की अग्रिम गाथाओं में जो नारी निन्दा की गयी है, उससे भी स्पष्ट होता है कि यहाँ धार्मिक व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में स्त्री की अपेक्षा पुरुष की प्रधानता स्थापित की गई है। नारी-निन्दा करते हुए इस अध्याय में कहा 74 इसिभासियाई सुत्ताई
SR No.006236
Book TitleRushibhashit Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2016
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_anykaalin
File Size33 MB
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