SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उल्लिखित बाहुक एक ही व्यक्ति है। यद्यपि इनके जीवन/विवरण के सम्बन्ध में इन ग्रन्थों में कुछ भी प्राप्त नहीं होता है। ऋषिमण्डलवृत्ति में भी इनके सम्बन्ध में कोई विवरण उपलब्ध नहीं है, अतः इनके जीवनवृत्त के सम्बन्ध में अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता। स्थानांगसूत्र के अनुसार प्रश्नव्याकरणदशा का दसवाँ अध्याय बाहुक से सम्बन्धित था। यद्यपि वर्तमान प्रश्नव्याकरणदशा में स्थानांग में उल्लिखित कोई भी अध्याय उपलब्ध नहीं है, किन्तु मैंने अपने एक स्वतन्त्र लेख में इसे स्पष्ट किया है कि प्रश्नव्याकरण के प्राचीनतम संस्करण में यह अध्याय रहा होगा और इसमें बाहुक के उपदेशों का संकलन भी रहा होगा। ऋषिभाषित में प्रस्तुत बाहक के उपदेशों का सारतत्त्व यही है कि युक्त बात भी यदि अयुक्त विचार के साथ की जाती है तो वह प्रमाण स्वरूप नहीं है। वस्तुतः इस कथन का आशय यही है कि यदि दृष्टि या चिन्तन अशुद्ध है तो बाह्य क्रिया चाहे वह शुद्ध या नैतिक प्रतीत होती हो, अनैतिक ही मानी जायेगी। इस अध्याय में मुख्य रूप से अनासक्ति पर बल देते हुए बताया गया है कि निष्काम भाव से जो भी साधना की जाती है, वही मुक्ति की दिशा में ले जाती है। सकाम भाव से किया गया तपश्चरण आदि भी नरक का कारण है। इस प्रकार बाहुक अनासक्त दर्शन के प्रतिपादक प्रतीत होते हैं। ___ बौद्ध परम्परा153 में बाहुक का नाम तो उपलब्ध नहीं होता, किन्तु बाहीक या बाही का उल्लेख मिलता है। यद्यपि आज यह कहना कठिन है कि यह बाहीक और ऋषिभाषित के बाहुक एक ही हैं, क्योंकि बौद्ध परम्परा में इन्हें बुद्ध के अनुयायी के रूप में ही विवेचित किया गया है, अतः इस सम्बन्ध में निश्चयात्मक रूप से कुछ कह पाना कठिन है। जहाँ तक वैदिक परम्परा154 का प्रश्न है उसमें बाहव्रक्त नामक ऋषि का उल्लेख है। इन्होंने ऋग्वेद के कुछ सूक्त बनाये थे, ऐसा माना जाता है, फिर भी इनकी ऋषिभाषित के बाहुक से समानता खोज पाना कठिन है। महाभारत155 में भी बाहुक का उल्लेख है। वहाँ उन्हें वृष्णि-वंशी वीर के रूप में प्रकट किया गया है। महाभारत में ही महाराजा सगर के पिता को भी बाहुक कहा गया है। इसी प्रकार राजा नल का भी एक नाम बाहक था, किन्तु ये सारे साक्ष्य हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचाने में सहायक नहीं होते कि इनका ऋषिभाषित में उल्लिखित बाहक के साथ कोई सम्बन्ध था। यह विषय अभी गवेषणात्मक है। विद्वानों से अपेक्षा है कि वे इस सम्बन्ध में विशेष खोज करने का प्रयास करेंगे। 64 इसिभासियाई सुत्ताई
SR No.006236
Book TitleRushibhashit Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2016
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_anykaalin
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy