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________________ विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। बृहदारण्यक उपनिषद् के कथानक के आधार पर ओल्डेनबर्ग, वेबर आदि ने जनक से सम्बन्धित होने के कारण इनको विदेह निवासी बताया है। यद्यपि वैदिक कोश में श्री सूर्यकान्त ने कुरु-पांचाल के उद्दालक से इनका सम्बन्ध होने के कारण इनके विदेह निवासी होने पर सन्देह प्रकट किया है। वैसे मेरी दृष्टि में उद्दालक से सम्बन्ध होने पर भी इनके विदेह निवासी होने पर सन्देह करना उचित नहीं, क्योंकि ऋषि परिभ्रमणशील होते थे। उद्दालक का उल्लेख हमें ऋषिभाषित में भी मिलता है। मेरी दृष्टि में बृहदारण्यक उपनिषद् में प्राप्त उल्लेख के आधार पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि चाहे वे अपने प्रारम्भिक जीवन में यज्ञ-परम्परा के समर्थक रहे हों, किन्तु जनक के आत्मवाद से प्रभावित होकर अन्त में वे निवृत्तिमार्गी श्रमण धारा की ओर मुड़े। बृहदारण्यक उपनिषद् में वे कहते हैं कि आत्मा को जानकर ब्राह्मण पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा का त्याग करके भिक्षाचर्या करते हुए विचरण करते हैं, क्योंकि जहाँ पत्रैषणा है वही वित्तैषणा है और जहाँ वित्तैषणा है वही लोकैषणा137 है। बृहदारण्यक उपनिषद् के इस उपदेश की तुलना याज्ञवल्क्य के ऋषिभाषित के उपदेशों से करते हैं तो दोनों में विलक्षण रूप से समानता परिलक्षित होती है। ऋषिभाषित में वे कहते हैं कि जब तक लोकैषणा है तब तक वित्तैषणा है और जब तक वित्तैषणा है तब तक लोकैषणा है, इसलिए साधक को लोकैषणा और वित्तैषणा का परित्याग करके गोपथ से जाना चाहिये, महापथ से नहीं। सम्भवतः यहाँ गोपथ का तात्पर्य यही है कि जिस प्रकार गाय थोड़ी-थोड़ी घास चरते हुए जीवन जीती है, उसी प्रकार से व्यक्ति को भिक्षाचर्या द्वारा किसी को कष्ट न देते हुए जीवन जीना चाहिए। यहाँ महापथ का तात्पर्य लोक-परम्परा या प्रवृत्ति-मूलक-परम्परा से भी हो सकता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि याज्ञवल्क्य अन्त में निवृत्ति मार्ग के उपदेशक हो जाते हैं। वैदिक परम्परा में बृहदारण्यकोपनिषद् के अतिरिक्त महाभारत में भी उनके उल्लेख उपलब्ध होते हैं।138 शांतिपर्व में इन्हें जनक को उपदेश देते हुए वर्णित किया गया है। इससे ऐसा लगता है कि ये जनक के समकालीन ऋषि रहे होंगे। जैन परम्परा में इन्हें जो अरिष्टनेमि के युग का ऋषि बताया गया है, वह समीचीन प्रतीत नहीं होता है। सम्भवतः ये इससे भी पूर्वकाल के ऋषि हैं। बृहदारण्यकोपनिषद् और ऋषिभाषित में उपलब्ध याज्ञवल्क्य के उपदेशों की तुलना के आधार पर हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि ऋषिभाषित के जण्णवक्क (याज्ञवल्क्य) अन्य कोई नहीं, अपित् उपनिषदों के याज्ञवल्क्य ही हैं। ऋषिभाषित : एक अध्ययन 61
SR No.006236
Book TitleRushibhashit Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2016
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_anykaalin
File Size33 MB
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