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________________ है कि ये बुद्ध एवं महावीर के पूर्ववर्ती तथा महाभारत काल के समवर्ती ऋषि रहे होंगे जिन्हें पर्याप्त समय तक लोकप्रियता प्राप्त होती रही और सम्भवतः उनकी अपनी कोई परम्परा भी चलती रही। अन्यथा जैन एवं बौद्ध ग्रन्थों में इनका जो उल्लेख उपलब्ध है, वह हमें नहीं प्राप्त होता। 4. अंगिरस भारद्वाज ऋषिभाषित के चतुर्थ अध्याय में अंगिरस भारद्वाज के उपदेश संकलित हैं। ऋषिभाषित के अतिरिक्त अंगिरस का उल्लेख आवश्यकनियुक्ति, आवश्यक भाष्य,77 आवश्यकचूर्णि8 और ऋषिमण्डल (इसिमण्डल) में भी मिलता है। वहाँ इन्हें कौशिक नामक उपाध्याय का तापस शिष्य कहा गया है। अन्य अध्यायों की अपेक्षा ऋषिभाषित का यह अध्याय पर्याप्त विस्तृत है। इसमें गद्य भाग के अतिरिक्त 24 गाथाएँ भी हैं। इस अध्याय में सर्वप्रथम मनुष्य के छद्मपूर्ण जीवन का चित्रण है। इसमें कहा गया है कि मनुष्य-हृदय को जान पाना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि उसके मन के भीतर अन्य बातें होती हैं, वह अन्य रूप से कर्म करता है और अन्य रूप से भाषण करता है। साथ ही इसमें यह भी बताया गया है कि अपने अच्छे और बुरे का ज्ञाता स्वयं ही है। जो व्यक्ति अपनी मनोवत्तियों का निरीक्षण करता है उसके पापकर्म निरुद्ध हो जाते हैं। अन्तर और बाह्य के द्वैत की समीक्षा करते हुए यह कहा गया है कि अनेक बार व्यक्ति आन्तरिक रूप से कल्याण का या शुभ का कर्ता होता है जबकि वह बाहर से पाप करने वाला दिखाई देता है। इसके विपरीत अनेक बार पापी व्यक्ति भी बाहर से शीलवान जैसा आचरण करने वाला देखा जाता है। अनेक स्थितियों में लोग चोर की प्रशंसा करते हैं और मनि की निन्दा करते हैं। केवल बाह्य कार्यों को देखकर शब्दों में किसी व्यक्ति को चोर या साधु कहने मात्र से वह चोर या साधु नहीं होता। वस्तुतः यह तो व्यक्ति स्वयं ही जानता है कि वह अच्छा है या बुरा। इस प्रकार इस सम्पूर्ण अध्ययन में मुख्य रूप से अन्तर और बाह्य की द्विविधा का चित्रण उपलब्ध है। मनुष्य में यह अन्दर और बाहर का द्वैत ऐसा है कि उसे समझ पाना कठिन है। व्यक्ति की साधुता या दुराचारिता का आधार बाहर की प्रशंसा या निन्दा नहीं, लेकिन अन्तर की मनोवृत्ति ही है। बौद्ध परम्परा में अंगिरस भारद्वाज का उल्लेख अनेक बार एक वैदिक ऋषि के रूप में हुआ है। मज्झिमनिकाय80 में अंगिरस भारद्वाज नाम के प्रत्येकबुद्ध का उल्लेख है। जातक 4/99 में ब्रह्मलोक को प्राप्त करने वाले जिन 11 संन्यासियों ऋषिभाषित : एक अध्ययन 47
SR No.006236
Book TitleRushibhashit Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2016
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_anykaalin
File Size33 MB
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