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43. तिचत्तालीसं जमज्झयणं
लाभम्मि जेण सुमणो, अलाभे णेव दुम्मणो । से हुसेट्ठे मणुस्साणं, देवाणं ण सक्कऊ ।।1।। जमेण अरहता इसिणा बुझतं ।
1. जो लाभ में सुमन (प्रसन्न) नहीं होता और अलाभ में दुर्मन (नाराज) नहीं होता वही मनुष्यों में श्रेष्ठ है, जैसे देवों में शतक्रतु — इन्द्र ।
ऐसा अर्हत् यम ऋषि बोले।
1. One untouched by excitement in prosperity and anguish in adversity is the salt of earth like the prince of gods Lord Indra, said Yama, the seer.
एवं से सिद्धे बुद्धे विरते विपावे दन्ते दविए अलं ताई णो पुरवि इच्चत्थं हव्वमागच्छति त्ति बेमि ।
इइ जम-णामज्झयणं । ।
इस प्रकार वह सिद्ध, बुद्ध, विरत, निष्पाप, जितेन्द्रिय, वीतराग एवं पूर्ण त्यागी बनता है और भविष्य में पुनः इस संसार में नहीं आता है।
ऐसा मैं (अर्हत् यम ऋषि) कहता हूँ ।
This is the means, then, for an aspirant to attain purity, enlightenment, emancipation, piety, abstinence and nonattachment. Such a being is freed of the chain of reincarnations. Thus, I Yama, the seer, do pronounce. यम नामक तेतालीसवाँ अध्ययन पूर्ण हुआ । 431
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43. यम अध्ययन 421