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38. अट्ठतीसं साइपुत्तिज्जज्झयणं
जं सुहेण सुहं लद्धं, अच्चन्तसुखमेव तं । जं सुखेण दुहं लद्धं, मा मे तेण समागमो ।। 1 ॥ सातिपुत्तेणबुद्धेण अरहता बुझतं ।
1. जिस सुख से सुख प्राप्त होता है वही आत्यन्तिक सुख है, किन्तु जिस सुख से दुःख की प्राप्ति हो ऐसे सुख से मेरा समागम न हो।
ऐसा अर्हत् सातिपुत्र बुद्ध ऋषि बोले
1. The true happiness is that which yields unmixed bliss. May I never come across a happiness that results in anguish, said Satiputra Buddha, the seer:
मणुण्णं भोयणं भोच्चा, मणुण्णं सयणासणं । मणुणंसि अगारंसि, झाति भिक्खू समाहिए || 2 ||
2. मनोज्ञ भोजन कर, मनोज्ञ शय्यासन का उपभोग कर और सुन्दर आवास (घर) में रहकर भिक्षु समाधि (सुख) पूर्वक ध्यान करता है।
2. A monk meditates blissfully after consuming delectable dishes and sleeping over luxurious beds in comfortable mansions. अमगुणं भोयणं भोच्चा, अमणुण्णं सयणासणं । अमणुणंसि गेहंसि, दुक्खं भिक्खू झियायती ॥। 3 ॥
3. अरुचिकर भोजन कर, अमनोज्ञ शय्यासन का उपभोग कर और असुन्दर आवास स्थान में रहकर भिक्षु दुःखपूर्वक ध्यान करता है।
3. Another monk meditates in pain after consuming nauseating meals and sleeping over uncomfortable beds in wretched houses. एवं अणेगवण्णागं, तं परिच्चज्ज पण्डिते । णण्णत्थ लुब्भई पण्णे, एयं बुद्धाण सासणं ।। 4 ।।
4. इस प्रकार के अनेक वर्णक (प्रकरण) प्राप्त होते हैं अथवा अनेक गुणात्मक पदार्थ प्राप्त होते हैं, उनका पण्डित त्याग करे । प्राज्ञ अन्यत्र लुब्ध न हो । यही बुद्ध ( ज्ञानी) की शिक्षा है।
402 इसिभासियाई सुत्ताई