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________________ 37. सत्ततीसं सिरिगिरिज्जज्झयणं (1.) सव्वमिणं पुरा उदगमासि त्ति सिरिगिरिणा माहणपरिव्वायगेण अरहता इसिणा बुइयं। एत्थ अण्डे संतत्ते, एत्थ लोए संभूते, एत्थं सासासे, इयं णे वरुणविहाणे। (2.) उभयो-कालं उभयो-संझं खीरं णवणीयं मधु समिधासमाहारं खारं संखं च पिण्डेत्ता अग्गिहोत्तकुण्डं पडिजागरेमाणे विहरिस्सामीति तम्हा एयं सव्वंति बेमि। (3.) णवि माया, ण कदाति णासि ण कदाति ण भवति ण कदाति ण भविस्सति य। यहाँ पहले सब जलमय (जल तत्त्व) था। ऐसा माहण परिव्राजक अर्हत् श्रीगिरि ऋषि बोले 1. वहाँ अण्डा आया, संतप्त हुआ अर्थात् फूटा। उससे वहां लोक उत्पन्न हुआ। वह श्वसित हुई अर्थात् सृष्टि उत्पन्न हुई। यह वरुण देव का विधान नहीं है। अर्थात् किसी का कथन है कि यह सृष्टि वरुण (जल का देवता) द्वारा निर्मित नहीं है। 2. उभय काल और उभय सन्ध्या को क्षीर (दूध), नवनीत (मक्खन), मधु (शहद) और समिधा को एकत्र कर, क्षार और शंख को मिलाकर, अग्निहोत्र कुण्ड को प्रतिक्षण जाग्रत् करता हुआ मैं रहूंगा। इसीलिये यह सब मैं कहता हूँ। 3. यह विश्व माया नहीं है। कभी नहीं था ऐसा नहीं है। कभी नहीं है, ऐसा भी नहीं है और कभी नहीं रहेगा, ऐसा भी नहीं है। अर्थात् यह विश्व शाश्वत है, अनादि अनन्त है। First it was all deluge, said Brahmin nomad Shrigiri, the seer : 1. The cosmic egg emerged which after its incubation burst forth. Its respiration was the emergence of cosmos. It is so believed that the cosmos was not created by Lord Varun (Mercury). ____ 2. At dawn and at dusk, I shall offer milk, butter, honey and herbs with alkalies and conch shell to the altar fire. That I hereby avow. 400 इसिभासियाई सुत्ताई
SR No.006236
Book TitleRushibhashit Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2016
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_anykaalin
File Size33 MB
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