________________
36. छत्तीसं तारायणिज्जज्झयणं
उप्पतता उप्पतता उप्पयन्तं पि तेण वोच्छामि। किं सन्तं वोच्छामि? णेयं तं वोच्छामि 'कुक्कुसया!' वित्तेण तारायणेण अरहता इसिणा बुइतं।
उग्र क्रोध से उत्तप्त और उबलते हुए व्यक्ति से मैं मधुर वाणी से बोलूंगा। क्या तुम्हारा (क्रोध) शमन हो गया? ऐसा मैं कहूंगा। उस अशान्त पुरुष से मैं कहूंगा कि, यह क्रोध तुष के समान निस्सार है, अर्थात् यह क्रोधाचरण तुम्हारे योग्य नहीं है।
ऐसा आत्मवैभव सम्पन्न अर्हत् तारायण ऋषि बोले
I will respond composedly and tranquilly to an irate. I shall question him, 'Has your wrath been pacified?' I shall try to convince him that his anger is insubstantial and unworthy of him, said Tarayan, the accomplished seer :
पत्तस्स मम य अन्नेसिं, मुक्को कोवो दहावहो।
तम्हा खलु उप्पतन्तं सहसा कोवं निगिण्हितव्वं। ऐसा, कोप-पात्र के प्रति किया गया कोप (क्रोध) मेरे और उसके लिये दुःखप्रद होता है। अर्थात् यह क्रोध दोनों के लिये दुःखदायक है। अतः क्रोध के अकस्मात् उत्पन्न होते ही उसका (पूर्णतया) दमन करना चाहिए।
Wrath is as injurious to the subject as to the object. That's why anger should be trampled the moment it raises its head.
कोवो अग्गी तमो मच्च, विसं वाधी अरी रयो।
जरा हाणी भयं सोगो, मोहं सल्लं पराजयो।।1।। 1. कोप अग्नि है, अन्धकार है, मृत्यु है, विष है, व्याधि है, शत्रु है, रज है, जरा, हानि है, भय है, शोक है, मोह है, शल्य है और पराजय है।
1. Wrath is fire. It is umbra. It is death, hemlock, severe malady. It is foe. It is dirt and death, bankruptcy, fear, confusion, sin and defeat.
वण्हिणो णो बलं छित्तं, कोहग्गिस्स परं बलं। अप्पा गती तु वण्हिस्स, कोवग्गिस्सऽमिता गती।।2।।
36. तारायण अध्ययन 395