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Fools will remain what they are, inconsiderate and indiscreet. A wise man should bear their mischief stoically without a demur.
(4.) बाले य पण्डियं अण्णतरेणं सत्थजातेणं अण्णतरं सरीरजायं अच्छिन्देज्ज वा विच्छिन्देज्ज वा, तं पण्डिए बह मण्णेज्जा-'दिट्ठा मे एस बाले अण्णतरेणं सत्थजातेणं अच्छिन्दति वा विच्छिन्दति वा, णो जीवितातो ववरोवेति। मुक्खसभावा हि बाला, ण किंचि बालेहिंतो ण विज्जति।' तं पण्डिए सम्मं सहेज्जा खमेज्जा तितिक्खेज्जा अहियासेज्जा।
(4) यदि अज्ञानी व्यक्ति पण्डित पुरुष के शरीरस्थ किसी अंग का किसी शस्त्रादि से छेदन करता है, भेदन करता है तो वह पण्डित पुरुष आलोचन करे कि—'देखो, यह अज्ञानी किसी शस्त्र विशेष से मेरे शरीर के किसी अवयव का छेदन अथवा भेदन कर रहा है, किन्तु मेरे प्राणों का नाश नहीं कर रहा है। ये अज्ञानी मूर्ख-स्वभाव के होते हैं। इन्हें किंचित् भी ज्ञान या अनुभव नहीं होता है।' अतः पण्डित पुरुष इस छेदन-भेदन को सम्यक् प्रकार से सहन करे, सामर्थ्यपूर्वक सहन करे, तितिक्षा-प्रसन्नता से सहन करे और उन पर विजय प्राप्त करे।
4. If the fool resorts to piercing the wise man's body or inflicting grievous injuries, the latter should still stand this affliction patiently with the consolation that at least he has chosen to spare the life of the hapless victim. Fools are replicas of indiscretion. They are unsympathetic and heartless. There is no go but to stand their inflictions with forbearance.
___(5.) बाले पण्डितं जीवियाओ ववरोवेज्जा, तं पण्डित्ते बह मण्णेज्जा : 'दिट्ठा मे एस बाले जीविताओ ववरोवेति, णो धम्माओ भंसेति। मुक्खसभावा हि बाला, ण किंचि बालेहिंतो ण विज्जति'। तं पण्डिते सम्मं सहेज्जा खमेज्जा तितिक्खेज्जा अहियासेज्जा।
इसि गिरिणा माहणपरिव्वायएणं अरहता बुइतं। .. (5) यदि बाल-अज्ञानी पुरुष प्रज्ञावान् पुरुष के प्राणों का नाश करता है तो वह पण्डित ज्ञानवान् अधिक गम्भीरता से विचार करे कि-'देखो, यह अज्ञानी मेरे प्राणों का नाश कर रहा है, किन्तु मेरे धर्म को भ्रंश/भ्रष्ट अथवा नष्ट नहीं कर रहा है। अज्ञानी मूर्ख-स्वभाव वाले होते हैं, इन्हें किंचित् भी ज्ञान या अनुभव नहीं होता है। अतः ज्ञानी पुरुष इस जीव-नाश को सम्यक् प्रकार से सहन करे, सामर्थ्यपूर्वक क्षमा करे, प्रसन्नता से सहन करे और उन पर विजय प्राप्त करे। ऐसा अर्हत् माहणपरिव्राजक ऋषिगिरि बोले
34. ऋषिगिरि अध्ययन 385