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8. Incense provokes him not, nor odour repeals. Such a one retains his composure ever and purges Karmas by preventing their inflow.
रसं जिब्भमुवादाय, मण्णुण्णं वा वि पावगं । मणुणम्मि ण रज्जेज्जा, ण पदुस्सेज्जा हि पावए । । १ ।
9. जिह्वा के द्वारा मधुर रस या अमधुर रस के पदार्थ को ग्रहण कर, मधुर पदार्थों में लोलुप न हो और कड़वे पदार्थों में थू-थू (द्वेष) न करे।
9. Such a one gulps down delicious juices as well as bitter ones with no urge to greedily sip the delectable nor spit out the bitter one.
मणुण्णम्मि अरज्जन्ते, अट्ठे इयरम्मि य । असुत्ते अविरोधीणं, एवं सोए पिहिज्जति ।।10।।
10. मधुर रस पर लोलुप नहीं होता और कटु रस पर द्वेष नहीं करता, इस प्रकार समान भाव में जाग्रत् रहकर, कर्म के स्रोत को रोक सकता है।
10. Being always composed at the delectable viand as well as the nauseating one, one can stop the Karmic inflow. फासं तयमुवादाय, मण्णुण्णं वा वि पावगं । मणुण्णम्मि ण रज्जेज्जा, ण पदुस्सेज्जा हि पावए ।।11।।
11. त्वचा के द्वारा कोमल या कठोर स्पर्श को प्राप्त कर, कोमल स्पर्श में आसक्त न हो और कठोर स्पर्श में द्वेष न करे ।
11. Let the tactile sense touch the smooth as well as the rough objects, indifferently neither relishing one nor abhoring another.
मणुण्णमि अरज्जन्ते, अट्ठे इयरम्मि य ।
असुत्ते अविरोधीणं, एवं सोए पिहिज्जति ।। 12 ।।
12. कोमल स्पर्श में लम्पट नहीं होता और कठोर स्पर्श पर द्वेष नहीं करता, इस प्रकार औदासीन्य वृत्ति में जाग्रत् रहकर कर्म के स्रोत को रोक सकता है।
12. Such a one is not tempted by the tender touches nor repulsed by the harsh ones and stays vigilant and equanimous to stop the Karmic ingress.
दुद्दन्ता इंदिया पंच, संसाराय सरीरिणं । ते चेव णियमिया सम्मं, णेव्वाणाय भवन्ति हि ।।13।।
362 इसिभासियाई सुत्ताई