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27. सत्तावीसं वारत्तयनामज्झयणं
साधु- सुचरितं अव्वाहता समणसंपया वारत्तए णं अरहता इसिणा बुतं ।
साधु का श्रेष्ठ आचरण - शोभन चारित्र ही असंगति रहित अव्याहत गति है। अतः श्रमणों का सहवास करना चाहिए। अथवा शोभन चारित्र ही श्रमण का ऐश्वर्य है।
ऐसा अर्हत् वारत्तक ऋषि बोले
It is the saints whose conduct is noble, graceful and truly consistent. Grace of conduct is their exclusive wealth. Hence one should seek the company of saints.
Added Varattak, the seer :
न चिरं जणे संवसे मुणी, संवासेण सिणेहु वद्धती । भिक्खुस्स अणिच्चचारिणो, अत्तट्ठे कम्मा दुहायती ॥1॥
1. मुनि स्त्रियों के मध्य में अधिक न रहे अथवा गृहस्थजनों से अधिक सम्पर्क न रखे। क्योंकि, अधिक परिचय से स्नेह / ममताभाव की वृद्धि होती है; जोकि अनित्यचारी — सांसारिक पदार्थों की अनित्यता का चिन्तन करने वाले श्रमण की आत्मा के लिये कर्म का रूप लेकर दुःखों को उत्पन्न करता है।
1. A saint should avoid, in large measure, contact with worldly beings and householders. Familiarity is prone to breed attachment which will bind as a Karma and breed woes for the saint who indeed, ever dwells on the transitorinses of life.
पयहित्तू सिणेहबन्धणं, झाणज्झयणपरायणे मुणी । द्धित्तेण सया वि चेतसा, णेव्वाणाय मतिं तु संदधे || 2 ||
2. मुनि स्नेहबन्धन को छोड़कर ध्यान और अध्ययन / स्वाध्याय में तल्लीन रहे और चित्त के विकारमल को धोकर अपनी मति को निर्वाणमार्ग में लगावे ।
2. A saint should discard sentiment and dedicate himself to meditation and study. He should purge and sublimate mind and seek the path of deliverance.
27. वारत्तक अध्ययन 351