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________________ 5. The last school of this class, called Sarvotkal, denies purpose behind all the entities. They believe in refuting everything. उड्डुं पायतला अहे केसग्गमत्थका, एस आतापज्जवे कसिणे तयपरियन्ते जीवे, एस जीवे जीवति, एतं तं जीवितं भवति । से जहा णामते दड्ढेसु बीएस पुणो अंकुरुपत्ती भवति, एवामेव दड्ढे सरीरे ण पुणो सरीरुप्पत्ती भवति । तम्हा इणमेव जीवितं, णत्थि परलोए, णत्थि सुकडदुक्कडाणं कम्माणं फलवित्तिविसेसे। णो पच्चायन्ति जीवा, णो फुसन्ति पुण्णपावा, अफले कल्लाणपावए। तम्हा एतं सम्मं ति बेमि : उड्डुं पायतला अहे केसग्गमत्थका एस आयाप (ज्जवे) क (सिणे) तयपरितन्ते एस जीवे। एस मडे, णो एतं तं (जीवितं भवति ) । से जहा णामते दड्ढेसु बीएसु (....) एवामेव दड्ढे सरीरे (....)। तम्हा पुण्णपावऽग्गहणा सुहदुक्खसंभवाभावा सरीरदाहे पावकम्माभावा सरीरं डहेत्ता णो पुणो सरीरुप्पत्ती भवति ।। ऊपर से लेकर चरणतल तक और नीचे से लेकर मस्तक के केशाग्र तक, इस आत्मा के पर्याय हैं। समस्त शरीर की त्वचा पर्यन्त जीव है। यह जीव का प्राणधारण है। इसी को जीवित कहा जाता है। जैसे जले हुए बीजों में फिर से अंकुर नहीं निकलते, वैसे ही शरीर के जल जाने पर पुनः शरीर की उत्पत्ति नहीं होती है। अतः यही जीवन है। परलोक नहीं है। सुकृत और दुष्कृत कर्मों का फल - व्यापार भी नहीं है। जीव पुनः आता भी नहीं है । पुण्य और पाप आत्मा को स्पर्श भी नहीं करते हैं। पुण्य और पाप निष्फल हैं। इसलिये मैं ठीक कहता हूँ कि ऊपर से चरणतल तक और नीचे से मस्तक के केशाग्र तक इस आत्मा के पर्याय हैं। समस्त शरीर की त्वचा पर्यन्त यही जीव है। यह जीव (कर्मरहित) मर जाता है तो पुनः जीव नहीं आता है। जैसे जले हुए बीजों में फिर से अंकुर नहीं निकलते, वैसे ही शरीर के जल जाने पर पुनः शरीर की उत्पत्ति नहीं होती है। अतः पुण्य-पाप का ग्रहण ही नहीं होता है। सुख-दुःख की सम्भावना का भी अभाव है, क्योंकि शरीर के जल जाने से पापकर्म का अभाव / नाश हो जाता है, शरीर के जल जाने पर पुनः शरीर की उत्पत्ति नहीं होती है। The entire organism from head to foot is an extension of soul. Self exists right upto the skin. It sustains the individual. It justifies spellation of living. Roasted seeds never germinate. Similarly a body burnt cannot be reincarnated. Body and life are co-terminous. There is no hereafter. There does not exist any system of moral desert. The individual is never reborn. Good and evil moral destiny never touch the soul. Virtue and vice 20. उत्कल अध्ययन 315
SR No.006236
Book TitleRushibhashit Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2016
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_anykaalin
File Size33 MB
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