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________________ में ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की चर्चा है। इसी अध्याय में देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नारक-इन चतुर्गतियों की भी चर्चा है। पचीसवें अम्बड़ नामक अध्याय में चार कषाय, चार विकथा, पाँच महाव्रत, तीन गुप्ति, पंच-इन्द्रिय संयम, छः जीव-निकाय, सात भय, आठ मद, नौ प्रकार का ब्रह्मचर्य तथा दस प्रकार के समाधिस्थान की चर्चा है। इस प्रकार इस अध्याय में जैन परम्परा में मान्य अनेक अवधारणाएँ एक साथ उपलब्ध हो जाती हैं। इसी अध्याय में आहार करने के छः कारणों की चर्चा भी है, जो स्थानांग (स्थान 6) आदि में मिलती है। स्मरण रहे कि यद्यपि जैनागमों में अम्बड़ को एक परिव्राजक माना है, फिर भी उसे महावीर के प्रति श्रद्धावान बताया है। यही कारण है कि इसमें सर्वाधिक जैन अवधारणाएँ उपलब्ध हैं। ऋषिभाषित के छब्बीसवें अध्याय में उत्तराध्ययन के पचीसवें अध्याय के समान ही ब्राह्मण के स्वरूप की चर्चा है। इसो अध्याय में कषाय, निर्जरा, छः जीवनिकाय और सर्व प्राणियों के प्रति दया का भी उल्लेख है। इकतीसवें पार्श्व नामक अध्ययन में पुनः चातुर्याम, अष्टविध कर्मग्रन्थि, चार गति, पंचास्तिकाय तथा मोक्ष स्थान के स्वरूप का दिग्दर्शन होता है। इसी अध्याय में जैन परम्परा के समान जीव को ऊर्ध्वगामी और पुद्गल को अधोगामी कहा गया है, किन्तु पार्श्व तो जैन परम्परा में मान्य ही हैं अतः इस अध्याय में अनेक जैन अवधारणाएँ होना आश्चर्यजनक नहीं है। अब विद्वानों की यह धारणा भी बनी है कि जैन दर्शन का तत्त्वज्ञान पार्खापत्यों की ही देन है। शनिंग ने भी इसिभासियाइं पर पार्खापत्यों का प्रभाव माना है। पुनः 32वें पिंग नामक अध्याय में जैन परम्परा के अनुरूप चारों वर्गों की मुक्ति का भी प्रतिपादन किया गया है। 24वें अध्याय में परीषह और उपसर्गों की चर्चा है। इसी अध्याय में पंच महाव्रत से युक्त, कषाय से रहित, छिन्नस्रोत, अनास्रव भिक्षु की मुक्ति की भी चर्चा है। पुनः 35वें उद्दालक नामक अध्याय में तीन गुप्ति, तीन दण्ड, तीन शल्य, चार कषाय, चार विकथा, पाँच समिति, पंचेन्द्रिय-संयम, योग-सन्धान एवं नवकोटि परिशुद्ध, दस दोष से रहित विभिन्न कुलों की परकृत, परनिर्दिष्ट, विगतधूम, शस्त्रपरिणत भिक्षा ग्रहण करने का उल्लेख है। इसी अध्याय में संज्ञा एवं 22 परीषहों का भी उल्लेख है। इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में अनेक जैन अवधारणाएँ उपस्थित हैं। अतः स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि क्या जैन आचार्यों ने ऋषिभाषित का संकलन करते समय अपनी ही अवधारणाओं को इन ऋषियों के मुख से कहलवा दिया अथवा मूलतः ये अवधारणाएँ इन ऋषियों की ही थीं और वहाँ से जैन परम्परा में प्रविष्ट हुईं? यह तो स्पष्ट है कि ऋषिभाषित उल्लेखित 30 इसिभासियाई सुत्ताई
SR No.006236
Book TitleRushibhashit Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2016
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_anykaalin
File Size33 MB
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