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में भी मिलती है। जैन परम्परा में इससे ही मिलता-जुलता विवरण उत्तराध्ययन के बत्तीसवें अध्याय में प्राप्त होता है। इसी प्रकार तीसरे असित देवल नामक अध्याय में हमें जैन परम्परा और विशेष रूप से आचारांग में उपलब्ध पाप को
प कहने की बात मिल जाती है। इस अध्याय में हमें पाँच महाव्रत, चार कषाय तथा इसी प्रकार हिंसा से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के 18 पापों का उल्लेख भी मिलता है । यह अध्याय मोक्ष के स्वरूप का विवेचन भी करता है और उसे शिव, अतुल, अमल, अव्याघात, अपुनरावर्तन तथा शाश्वत स्थान बताता है। मोक्ष का ऐसा ही स्वरूप हमें जैन आगम - साहित्य में विशेष रूप से नमोत्थुणं के पाठ में एवं अन्यत्र भी मिलता है । पाँच महाव्रतों और चार कषायों का विवरण तो ऋषिभाषित के अनेक अध्यायों में आया है। महाकाश्यप नामक 9वें अध्ययन में पुण्य, पाप तथा संवर और निर्जरा की चर्चा उपलब्ध होती है। इसी अध्याय में कषाय का भी उल्लेख है। नवें अध्याय में कर्म आदान की मुख्य चर्चा करते हुए मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग को बन्धन का कारण कहा गया है जो कि जैन परम्परा के पूर्णतः अनुरूप है। इसमें जैन परम्परा के अनेक पारिभाषिक शब्द यथा उपक्रम, बद्ध, स्पृष्ट, निकाचित, निर्जीर्ण, सिद्धि, शैलेषी - अवस्था, प्रदेशोदय, विपाकोदय आदि पाये जाते हैं। इस अध्याय में प्रतिपादित आत्मा की नित्यानित्यता की अवधारणा, सिद्धावस्था का स्वरूप एवं कर्मबन्धन और निर्जरा की प्रक्रिया जैन दर्शन के समान है।
इसी तरह अनेक अध्यायों में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अवधारणा भी मिलती है। बारहवें याज्ञवल्क्य नामक अध्ययन में जैन परम्परा के अनुरूप गोचरी के स्वरूप एवं शुद्धैषणा की चर्चा मिल जाती है। आत्मा अपने शुभाशुभ कर्मों का कर्ता और कृत-कर्मों के फल का भोक्ता है यह बात भी 15वें मधुरायन नामक अध्ययन में कही गयी है। सत्तरहवें विदुर नामक अध्ययन में सावद्ययोग, विरति और समभाव की चर्चा है। उन्नीसवें आरियायण नामक अध्याय में आर्य ज्ञान, आर्य दर्शन और आर्य चरित्र के रूप में प्रकारान्तर से सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र की ही चर्चा है। बाईसवाँ अध्याय धर्म के क्षेत्र में पुरुष की प्रधानता की चर्चा करता है तथा नारी की निन्दा करता है, इसकी सूत्रकृतांग के 'इत्थिपरिण्णा' नामक अध्ययन से समानता है। तेईसवें रामपुत्त नामक अध्याय में उत्तराध्ययन (28/35) के समान ही ज्ञान के द्वारा जानने, दर्शन द्वारा देखने, संयम के द्वारा निग्रह करने की तथा तप के द्वारा अष्टविध कर्म के विधूनन की बात कही गयी है । अष्टविध कर्म की यह चर्चा केवल जैन परम्परा में ही पायी जाती है । पुनः चौबीसवें अध्याय में भी मोक्ष मार्ग के रूप
ऋषिभाषित : एक अध्ययन 29