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15. जो सुखाभिलाषी जीव सुख के लिये पाप करते हैं। जैसे ऋण लेने वाले पर ऋण (कर्ज) बढ़ता जाता है वैसे ही उसके पापों की राशि भी बढ़ती जाती है।
___15. Indulgent beings commit sins like a debtor delving headlong in enhancing debts.
अणुबद्धमपस्सन्ता, पच्चुप्पण्णगवेसका।
तेपच्छादुक्खमच्छन्ति, गलुच्छिन्नाझसाजहा।।16।। 16. जो केवल वर्तमान सुख को ही खोजते हैं किन्तु उससे अनुबद्ध फल को नहीं देखते हैं वे बाद में उसी प्रकार से दुःख पाते हैं जैसे कण्ठ से बिंधी हुई मछली।
____16. Those lost in instant pleasures, oblivious of the concomitant miserable trail are akin to the angled fish unaware of the bait.
आता-कडाण कम्माणं, आता भुंजति तं फलं।
तम्हा आतस्स अट्टाए, पावमादाय वज्जए।।17।। 17. आत्मा ही कर्मों का कर्ता है और आत्मा ही उनके फल का भोक्ता है। अतः (मुमुक्षु) आत्मोत्कर्ष के लिये पापग्रहण करने वाले मार्ग का त्याग कर दे।
17. The self authors the deeds (Karmas) and itself reaps the harvest. The sole path to elevation is through sinlessness.
सन्ते जम्मे पसूयन्ति, वाहिसोगजरादओ।
नासन्ते डहते वण्ही, तरुच्छेत्ता ण छिन्दति।।18।। 18. जन्म के सद्भाव में व्याधि, शोक, बुढ़ापा आदि उपाधियाँ उत्पन्न होती हैं अर्थात् जन्म-मृत्यु का अभाव होने पर किसी भी प्रकार की उपाधि उत्पन्न नहीं होती है। जलने योग्य पदार्थ नहीं है तो आग किसको जलाएगी? वृक्ष काटने वाला नहीं है तो कुल्हाड़ी किसको काटेगी?
18. Incarnation yields maladies, woe and senility etc. Once this chain is broken, no such miseries ever rise. If there be no fuel where-from the fire? If there be no woodcutter where-from the cutting by the axe?
दक्खं जरा य मच्चू य, सोगो माणावमाणणा।
जम्मघाते हता होन्ती, पुप्फघाते जहा फलं।।19।। ___19. जैसे पुष्प का नाश कर देने पर फल नष्ट हो जाते हैं वैसे ही जन्म का नाश होने पर दुःख, बुढ़ापा, मृत्यु, शोक और मानापमान नष्ट हो जाते हैं।
15. मधुरायण अध्ययन 299