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फलं ।
मूलसेके फलुप्पत्ती, मूलघाते हतं फलत्थी सिंचते मूलं, फलघाती न सिंचति ।। 7 ।।
7. मूल का सिंचन करने पर फल प्राप्त होता है। मूल का नाश करने पर फल का नाश होता है। फलाभिलाषी मूल का सिंचन करता है और फलहन्ता मूल का सिंचन नहीं करता है।
7. Watering the root will positively yield fruit. Nipping the root will exclude all possibility of fruit. One craving for fruit will nurture the root and one wary of the latter will never nurture the former.
दुक्खितो दुक्खघाताय दुक्खावेत्ता सरीरिणो । पडियारेण दुक्खस्स, दुक्खमण्णं णिबंधती ॥ 8 ॥
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8. दुःख का अनुभव करता हुआ दुःखाभिभूत देहधारी दुःख का नाश करने के लिए प्रयत्न करता है किन्तु उसका वह एक दुःख का प्रतिकार दूसरे दुःख का उपार्जन कर लेता है।
8. The miserable sufferer endeavours to preclude all misery. However, these endeavours generate further train of miseries, inevitably.
दुक्खमूलं पुरा किच्चा, दुक्खमासज्ज सोयती । गहितम्मि अणे पुव्विं, अदइत्ता ण मुच्चति ।।१।।
9. दुःख का मूल (बीज) पहले बोता है। पश्चात् दुःख प्राप्त होने पर शोक करता है। पूर्व में लिये हुए ऋण (कर्ज) को लौटाये बिना वह ऋण मुक्त नहीं हो
सकता ।
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9. One first sows the seed of misery and subsequently regrets it. A debtor has no option but to discharge his own debt.
आहारत्थी जहा बालो, वहिं सप्पं च गेण्हती । तहा मूढो सुहत्थी तु, पावमण्णं पकुव्वती ।।10।।
10. जैसे खाने की इच्छा वाला बालक अग्नि और सांप को पकड़ लेता है। वैसे ही मूढ़ व्यक्ति अपने प्रशस्त हाथों से अन्य पाप को ग्रहण कर लेता है।
10. As a hungry infant grasps fire or serpent, so a confounded being voluntarily extends his own hand to grasp a fresh sin.
15. मधुरायण अध्ययन 297