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मज्जं दोसा विसं वण्ही, गहावेसो अणं अरी।
धणं धम्मं च जीवाणं, विण्णेयं धुवमेव तं।।21।। 21. मदिरा, विष, अग्नि, मोह रूपी ग्रहावेश, ऋण, (काम, दुर्गुण, क्रोधादि) शत्रु ही आत्मा के दोष हैं। धर्म ही उसकी आत्मा का शाश्वत धन है। ऐसा जानना चाहिये।
21. Be it known that liquor, vices, drugs, fire, mansions, deliberate illusion, debt, libido and anger etc. are the bane of soul. Virtue (Dharma) is the unexhausting asset of soul.
कम्मायाणेऽवरुद्धम्मि, सम्मं मग्गाणुसारिणा।
पुव्वाउत्ते य णिज्जिण्णे, खयं दुक्खं णियच्छती।।22॥
22. कर्म के आगमन को रोककर, प्रशस्त मार्ग का अनुसरण करने वाला पूर्वार्जित कर्मों की निर्जरा कर, निश्चय पूर्वक दुःखों का क्षय कर देता है।
22. Preventing further accumulation of Karmas and purging the past ones by means of a noble conduct is the sure means of diminishing woe.
परिसो रहमारूढो, जोग्गाए सत्तसंजतो।
विपक्खं णिहणं णेइ, सम्मद्दिट्टी तहा अणं।।23।। 23. विपक्षी को हनन करने योग्य सत्त्व सामर्थ्य से सम्पन्न पुरुष रथारूढ होकर विपक्ष (शत्रु) को समाप्त कर देता है। इसी प्रकार सम्यक् दृष्टि आत्मा अनन्तानुबन्धी क्रोधादि अन्तरंग शत्रुओं का अर्थात् कर्मरूपी ऋण का नाश कर देता है।
23. A potent warrior girds up his loins to reduce his adversary to bits. So the accomplished soul treats his latent foes like anger etc.
वह्निमारुयसंजोगा, जहा हेमं विसुज्झती।
सम्मत्तनाणसंजुत्ते, तहा पावं विसुज्झती।।24।। 24. जैसे अग्नि और पवन के संयोग से स्वर्ण विशद्ध हो जाता है, वैसे ही सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान से युक्त होने पर आत्मा पाप से विशुद्ध हो जाता है।
24. As burnishing in fire and exposure to air purifies gold, so correct and scripture-endorsed perspective and knowledge nullify the inherent foes like anger by smothering Karmas.
276 इसिभासियाई सुत्ताई