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1. पढमं णारदज्झयणं
1. सोयव्वमेव वदति, सोयव्वमेव पवदति, जेण समयं जीवे सव्वदुक्खाण मुच्चति। तम्हा सोयव्वातो परं णत्थि सोयं ति देवनारदेण अरहता इसिणा बुइतं।
___ 1. सिद्धान्त श्रोतव्य (श्रवण करने योग्य सत्य) का ही कथन करता है। सिद्धान्त श्रोतव्य का ही विशेष रूप से कथन (प्रतिपादन) करता है। आत्मा स्वसिद्धान्त का ज्ञाता बनकर समस्त दुःखों से मुक्त होता है। अतः श्रवण करने से बढ़कर अन्य कोई शौच (पवित्र) नहीं है। ऐसा अर्हत् देवर्षि नारद कहते हैं।
1. A true doctrine propounds truth meriting such a treatment. That which is worthy of attending to alone is thus propounded. The self is delivered of all unhappiness once the former discovers knowledge pertaining to itself.
Nothing is holier than listening to the true doctrine. This is Arihant Narada's doctrine. ___ 2. पाणातिपातं तिविहं तिविहेणं णेव कुज्जा ण कारवे : पढमं सोयव्वलक्खणं। मुसावादं तिविहं तिविहेणं णेव बूया ण भासए : बितियं सोयव्वलक्खणं। अदत्तादाणं तिविहं तिविहेणं णेव कुज्जा ण कारवे : ततियं सोयव्वलक्खणं। अब्बम्भ-परिग्गहं तिविहं तिविहेणं णेव कुज्जा ण कारवे : चउत्थं सोयव्वलक्खणं।
2. (मुमुक्षु) त्रिकरण और त्रियोग से न स्वयं हिंसा करे और न अन्य से करावे। यह श्रोतव्य का प्रथम लक्षण है।
त्रिकरण और त्रियोग पूर्वक (मुमुक्षु) मृषा (असत्य, मिथ्या) भाषा न स्वयं बोले और न अन्य से बुलवाये अथवा न मिथ्या उपदेश ही दे। यह श्रोतव्य का दूसरा लक्षण है।
तीन करण और तीन योग पूर्वक (मुमुक्षु) अदत्तादान (अन्य की वस्तु का ग्रहण) न स्वयं करे और न अन्य से करावे। यह श्रोतव्य का तीसरा लक्षण है।
मुमुक्षु त्रिकरण (कृत, कारित, अनुमोदित) और त्रियोग (मनोयोग, वचनयोग, काययोग) पूर्वक अब्रह्म (मैथुन, काम) और परिग्रह का न स्वयं सेवन और संग्रह करे तथा न अन्य किसी को इस हेतु प्रवृत्त करे। यह श्रोतव्य का चौथा लक्षण है।
1. नारद अध्ययन 241