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स्थानांग में प्राप्त सूचना के अनुसार यह ग्रन्थ प्रारम्भ में प्रश्नव्याकरणदशा का एक भाग था ; स्थानांग में प्रश्नव्याकरणदशा की जो दस दशाएँ वर्णित है, उसमें ऋषिभाषित का भी उल्लेख है। समवायांग इसके 44 अध्ययन होने की भी सूचना देता है। अतः यह इनका पूर्ववर्ती तो अवश्य ही है। सूत्रकृतांग में नमि, बाहक, रामपुत्त, असित देवल, द्वैपायन, पराशर आदि ऋषियों का एवं उनकी आचारगत मान्यताओं का किंचित् निर्देश है। इन्हें तपोधन और महापुरुष कहा गया है। उसमें कहा गया है कि पूर्व ऋषि इस (आर्हत् प्रवचन) में 'सम्मत' माने गये हैं। इन्होंने (सचित्त) बीज और पानी का सेवन करके भी मोक्ष प्राप्त किया था। अतः पहला प्रश्न यही उठता है कि इन्हें सम्मानित रूप में जैन परम्परा में सूत्रकृतांग के पहले किस ग्रन्थ में स्वीकार किया गया है? मेरी दृष्टि में केवल ऋषिभाषित ही एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें इन्हें सम्मानित रूप से स्वीकार किया गया है। सूत्रकृतांग की गाथा का 'इह-सम्मता' शब्द स्वयं सूत्रकृतांग की अपेक्षा ऋषिभाषित के पूर्व अस्तित्व की सूचना देता है। ज्ञातव्य है कि सूत्रकृतांग और ऋषिभाषित. दोनों में जैनेतर परम्परा के अनेक ऋषियों यथा असित देवल, बाहक आदि का सम्मानित रूप में उल्लेख किया गया है। यद्यपि दोनों की भाषा एवं शैली भी मुख्यतः पद्यात्मक ही है, फिर भी भाषा के दृष्टिकोण से विचार करने पर सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध की भाषा भी ऋषिभाषित की अपेक्षा परवर्तीकाल की लगती है। क्योंकि, उसकी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत के निकट है, जबकि ऋषिभाषित की भाषा कुछ परवर्ती परिवर्तन को छोड़कर प्राचीन मागधी है। पुनः जहाँ सूत्रकृतांग में इतर दार्शनिक मान्यताओं की समालोचना की गयी है वहाँ ऋषिभाषित में इतर परम्परा के ऋषियों का सम्मानित रूप में ही उल्लेख हुआ है। यह सुनिश्चित सत्य है कि ग्रन्थ जैन धर्म एवं संघ के सुव्यवस्थित होने के पूर्व लिखा गया था। इस ग्रन्थ के अध्ययन से स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है कि इसके रचनाकाल तक जैन संघ में साम्प्रदायिक अभिनिवेश का पूर्णतः अभाव था। मंखलि गोशालक और उसकी मान्यताओं का उल्लेख हमें जैन आगम सूत्रकृतांग19, भगवती1, और उपासकदशांग12 में और बौद्ध परम्परा के सुत्तनिपात, दीघनिकाय के सामञफलसुत्त आदि में भी मिलता है। सूत्रकृतांग में यद्यपि स्पष्टतः मंखलि गोशालक का उल्लेख नहीं है, किन्तु उसके आर्द्रक नामक अध्ययन में नियतिवाद की समालोचना अवश्य है। यदि हम साम्प्रदायिक अभिनिवेश के विकास की दृष्टि से विचार करें तो भगवती का मंखलि गोशालक वाला प्रकरण सूत्रकृतांग और उपासकदशांग की अपेक्षा भी पर्याप्त परवर्ती सिद्ध होगा। सूत्रकृतांग, उपासकदशांग और पालि-त्रिपिटक के अनेक ग्रन्थ मंखलि
ऋषिभाषित : एक अध्ययन 23