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________________ सभी ऋषियों का उल्लेख मिलता है । इसिमण्डल का उल्लेख आचारांग - चूर्णि 'इसिणामकित्तणं इसिमण्डलत्थउ' (पृष्ठ 374) में होने से यह निश्चित ही उसके पूर्व (7वीं शती के पूर्व ) का ग्रन्थ है। विद्वानों को इस सम्बन्ध में विशेष रूप से चिन्तन करना चाहिए। इसिमण्डल के सम्बन्ध में यह मान्यता है कि वह तपागच्छ धर्मघोषसूरि की रचना है; किन्तु मुझे यह धारणा भ्रान्त प्रतीत होती है, क्योंकि ये 14वीं शती आचार्य हैं। वस्तुतः इसिमण्डल की भाषा से भो ऐसा लगता है कि यह प्राचीन ग्रन्थ है और इसका लेखक ऋषिभाषित का ज्ञाता है। आचार्य जिनप्रभ ने विधिमार्गप्रपा में तप आराधना के साथ आगमों के स्वाध्याय की,.. जिस विधि का वर्णन किया है, उसमें प्रकीर्णकों में ऋषिभाषित का उल्लेख करके प्रकीर्णक अध्ययन क्रम विधि को समाप्त किया है । इस प्रकार वर्गीकरण की प्रचलित पद्धति में ऋषिभाषित की गणना प्रकीर्णक सूत्रों में की जा सकती है। प्राचीन काल में जैन परम्परा में इसे एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता था । आवश्यकनिर्युक्ति में भद्रबाहु ऋषिभाषित पर भी निर्युक्ति लिखने की प्रतिज्ञा करते हैं,' वर्तमान में यह नियुक्ति उपलब्ध नहीं होती है। आज तो यह कहना भी कठिन है कि यह निर्युक्ति लिखी भी गई थी या नहीं । यद्यपि 'इसिमण्डल' जिसका उल्लेख आचारांगचूर्णि में है, इससे सम्बन्धित अवश्य प्रतीत होता है । इन सबसे इतना तो सिद्ध हो जाता है कि ऋषिभाषित एक समय तक जैन परम्परा का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ रहा है । स्थानांग में इसका उल्लेख प्रश्नव्याकरणदशा के एक भाग के रूप में हुआ है । समवायांग इसके 44 अध्ययनों का उल्लेख करता है। जबकि वर्तमान में इसके 45 अध्ययन हैं। कुछ विद्वान चार्वाक मत सम्बन्धी इसके 20वें अध्ययन को बाद में प्रक्षिप्त मानते हैं, क्योंकि उसके प्रवक्ता ऋषि का कोई उल्लेख नहीं है । जैसा कि पूर्व में हम सूचित कर चुके हैं —— नन्दीसूत्र, पक्खीसूत्र आदि में इसकी गणना कालिकसूत्रों में की गई है। आवश्यकनिर्युक्ति इसे धर्मकथानुयोग का ग्रन्थ कहती है (आवश्यक - नियुक्ति हारिभद्रीय वृत्तिः पृ. 206 ) । ऋषिभाषित का रचनाक्रम एवं काल — यह ग्रन्थ अपनी भाषा, छन्द-योजना और विषय वस्तु की दृष्टि से अर्धमागधी जैन आगम ग्रन्थों में अतिप्राचीन है। मेरी दृष्टि में यह ग्रन्थ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक जैसे प्राचीन आगम ग्रन्थों की अपेक्षा पूर्ववर्ती सिद्ध होता है क्योंकि इसकी भाषा में प्रायः 'ल' के लोप का अभाव है। मेरी दृष्टि में इसका वर्तमान स्वरूप भी किसी भी स्थिति में ईसवी पूर्व तीसरी - चौथी शताब्दी से परवर्ती सिद्ध नहीं होता है । 22 इसिभासियाई सुत्ताई
SR No.006236
Book TitleRushibhashit Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2016
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_anykaalin
File Size33 MB
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