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________________ के उपदेश और दार्शनिक विचार विस्तार से उपलब्ध हैं। ऋषिभाषित के साथ उनका तुलनात्मक अध्ययन अपेक्षित है। ऋषिभाषित में सारिपुत्र के उपदेश का मुख्य प्रतिपाद्य अतियों से बचकर मध्यम मार्ग की साधना है।284 यह उपदेश बौद्ध धर्म का केन्द्रीय तत्त्व है। वे कहते हैं जिस सुख से सुख प्राप्त होता है वही आत्यन्तिक सुख है, किन्तु जिस सुख से दुःख प्राप्त हो, उसका समागम न हो। इस कथन का वक्तव्य यही है कि, दुःख प्रदाता सुख वरेण्य न होकर सुख प्रदाता सुख ही वरेण्य है। सुख से सुख प्राप्त होता है, दुःख से सुख प्राप्त नहीं होता है। इसीलिये वे आगे कहते हैं कि मनोज्ञ भोजन कर, मनोज्ञ शय्या और आवास में रहकर भिक्षु समाधिपूर्वक ध्यान करता है। जबकि अमनोज्ञ भोजन, शय्या और आवास में रहकर वह दुःखपूर्वक ध्यान करता है। यहाँ स्पष्ट रूप से निर्ग्रन्थों की देह-दण्डन की प्रक्रिया का विरोध परिलक्षित होता है। यद्यपि इसका तात्पर्य यह नहीं है कि सारिपुत्र भोग मार्ग के समर्थक हैं। अग्रिम गाथाओं में उन्होंने इन्द्रिय संयम का उपदेश दिया है। वे कहते हैं, अप्रमत्त (जागृत) प्रज्ञावान साधक को इन्द्रियों के विषयों में लुब्ध नहीं होना चाहिए, उसे उनमें आसक्ति का त्याग करना चाहिए। क्योंकि, अप्रमत्त साधक की सुप्त पंचेन्द्रियाँ अल्प दुःख का कारण होती हैं। पुनः साधना का उद्देश्य सुखदुःख का अतिक्रमण बताते हुए कहा गया है जिस प्रकार व्याधि को शान्त करने के लिए कटु या मधुर जैसी भी औषधि जो भी वैद्य द्वारा निर्दिष्ट हो सेवन की जाती है, उसी प्रकार मोह रूपी व्याधि के उपशमन के लिए ज्ञानीजनों द्वारा उपदिष्ट कठोर (कष्टप्रद) या सरल (सुखप्रद) साधना की जाती है। जिस प्रकार चिकित्सा का उद्देश्य रोग-शमन है, सुख और दःख नहीं है, यद्यपि चिकित्सा काल में सुख-दुःख होते हैं, उसी प्रकार साधना का उद्देश्य मोह प्रहाण है, सुख या दुःख नहीं: यद्यपि साधना काल में सुख-दुःख होते हैं। इस प्रकार साधक को सुख-दुःख से परे रहने को कहा गया है। सामान्यजनों का संवेग (पाप से भय), उत्तमजनों का निर्वेद (वैराग्य), यदि यह आकांक्षा युक्त है तो वे दीनभाव हैं। सारिपुत्र अरण्यवास और आश्रमवास की अवधारणाओं में मध्यस्थ भाव रखते हुए कहते हैं—दमितेन्द्रिय वीर पुरुष के लिए क्या जंगल और क्या आश्रम? स्वभावभावित आत्मा के लिए अरण्य और ग्राम दोनों ही समान हैं। ऐसी आत्मा तो मुनिवेश और परिवार कहीं भी रहकर विशुद्धि प्राप्त कर सकती है। यही बात आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध में भी कही गई है। इस प्रकार सारिपत्र साधनों पर बल न देकर साधना में चित्तवृत्ति की विशुद्धि पर बल देते हैं, जो कि बौद्ध धर्म-दर्शन की विशेषता है। ऋषिभाषित : एक अध्ययन 99
SR No.006236
Book TitleRushibhashit Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2016
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_anykaalin
File Size33 MB
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