SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपभ्रंश-महाकाव्य ७१ बिणि वि तणु-तेयाहय-तिमिर बिणि वि जिण-चरण-कमल-णमिर। बिणि वि मंदर-परिभमण-चल बिणि वि विण्णाण-करण-कुसल । विष्णि वि पहरंति पहरक्खमिहि भुय-वंडिहिं वज्ज-दंड-समिहि । पय-भारिहि भारिय विहि मि महि महि-पडण-पेललणाहित्य महि । रि० च० २८. १६ अर्थात् इसके बाद नवनाग सहस्र बल वाले, रण कुशल दोनों भीम और कीचक परस्पर युद्धार्थ भिड़ गये। दोनों पर्वत के उत्तुंग शिखर के सदृश थे, दोनों मेघ के गम्भीर गर्जन के समान वाणी वाले थे, दोनों के नेत्र गुजाफल सदृश थे, दोनों आकाश सदृश विशाल वक्षस्थल वाले थे, दोनों परिघा-सदृश भुजाओं वाले थे, दोनों ने शरीर के तेज से अन्धकार को नष्ट कर दिया, दोनों जिन चरणों में नमनशील थे, दोनों मंदराचलपरिभ्रमण के समान गति वाले और क्रियात्मक विज्ञान में कुशल थे, दोनों वज्रदंड के समान प्रहारक्षम भुजदंडों से प्रहार करने लगे। दोनों ने पृथ्वी को अपने चरण भार से पूरित कर दिया। कवि के वर्णनों में संस्कृत की वर्णन शैली का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। ___ अनेक स्थलों पर कवि की अद्भुत कल्पना के भी दर्शन होते हैं। विराट नगर का वर्णन करता हुआ कवि कहता है पट्टणु पइसरिय जं धवल-घरालंकरियउ । केण वि कारणेण णं सग्गखंडु ओयरियउ॥ रि० च० २८.४ ___ अर्थात् पांचों पांडव उस नगर में प्रविष्ट हुए, जो धवल गृहों से अलंकृत था और ऐसा सुन्दर प्रतीत होता था मानो किसी कारण स्वर्ग खंड पृथ्वी पर उतर आया हो। - कवि के इस वर्णन में कालिदास के निम्नलिखित कथन की झलक है। उज्जयिनी के विषय में कालिदास कहते हैं स्वल्पी भूते सुचरित फले स्वगिणां गां गतानां । शेषः पुण्यह तमिव दिवः कान्तिमत् खंडमेकम् ॥ ___ मेघदूत १.३० वाल्मीकि रामायण में भी कवि ने लंका को पृथ्वी पर गिरा हुआ स्वर्ग कहा है "महीतले स्वर्गमिव प्रकीर्णम्" घत्ता काव्य की भाषा साहित्यिक है और व्याकरणानुमत है । स्थान-स्थान पर अलंकारों के प्रयोग से भाषा अलंकृत है । अलंकारों के प्रयोग में उपमान भी धार्मिक-भावना युक्त है। उदाहरण के लिएपत्ता- सहुं दुमय-सुयाए कोक्काविय ते वि पइट्ठा। जीवदयाए सहिय परमेट्ठि पंच णं दिट्ठा ॥ रि० च० २८. ५
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy