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________________ अपभ्रंश साहित्य का संक्षिप्त परिचय भी लिखे किन्तु वे भी इसी धार्मिक आवरण से आवृत हैं। भविसयत्त कहा, पउमसिरि-चरिउ, सुदंसण चरिउ, जिणदत्त चरिउ आदि इसी प्रकार के ग्रंथ हैं । मानों घमं इनका प्राण था और धर्म ही इनकी आत्मा । इस प्रवृत्ति के होते हुए भी अपभ्रंश प्रबंध-काव्यों में नायकों के बहुपत्नीत्व का चित्रण आज कुछ खटकता सा है । राजशेखर (१०वीं सदी) ने राज सभा में संस्कृत और प्राकृत कवियों के साथ अपभ्रंश कवियों के बैठने की योजना बताई है । इससे स्पष्ट होता है कि उस समय अपभ्रंश कविता भी राजसभा में आदूत होती थी। इसी प्रकरण में भिन्न भिन्न कवियों के बैठने की व्यवस्था बताते हुए राजशेखर ने संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश कवियों के साथ बैठने वालों का भी निर्देश किया है। अपभ्रंश कवियों के साथ बैठने वाले चित्रकार, जौहरी, सुनार, बढ़ई आदि समाज के मध्य कोटि के मनुष्य होते थे । इससे प्रतीत होता है कि राजशेखर के समय संस्कृत कुल थोड़े से पण्डितों की भाषा थी । प्राकृत जानने वालों का क्षेत्र अपेक्षाकृत बड़ा था । अपभ्रंश जानने वालों का क्षेत्र और भी afro विस्तृत था और इस भाषा का संबंध जन साधरण के साथ था। राजा के परिचारक वर्ग का 'अपभ्रंश भाषण प्रवण' होना भी इसी बात की ओर संकेत करता है । " ४७ श्री मुनि जिन विजय जी द्वारा संपादित 'पुरातन प्रबन्ध संग्रह' नामक ग्रंथ में स्थान स्थान पर अनेक अपभ्रंश पद्य मिलते हैं । इस ग्रंथ से प्रतीत होता है कि अनेक राजसभाओं में अपभ्रंश का आदर चिरकाल तक बना रहा। राजा भोज या उनके पूर्ववर्त्ती राजा अपभ्रंश कविताओं का सम्मान ही नहीं करते थे, स्वयं भी अपभ्रंश में कविता लिखते थे । राजा भोज से पूर्व मुंज की सुन्दर अपभ्रंश कविताएँ मिलती हैं । अपभ्रंश कविताओं की परंपरा आधुनिक प्रान्तीय भाषाओं के विकसित हो जाने पर भी चलती रही, जैसा कि विद्यापति की कीर्तिलता से स्पष्ट होता है । अध्ययन के सुभीते के लिये अपभ्रंश साहित्य का विभाजन कर लेना उचित प्रतीत होता है । अतएव यहां कुछ उसका भी विचार कर लेना ठीक होगा । अधिकांश अपभ्रंश साहित्य की रचना विदर्भ, गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, मिथिला और मगध में हुई । विभिन्न प्रान्तों में प्राप्त अपभ्रंश साहित्य के आधार पर इस साहित्य का वर्गीकरण भिन्न-भिन्न प्रांतों की दृष्टि से किया जा सकता है १. पश्चिमी प्रदेश का अपभ्रंश साहित्य १. तस्य ( राजासनस्य) चोत्तरतः संस्कृताः कवयो निविशेरन् ।... पूर्वेण प्राकृताः कवयःः, | पश्चिमेनापभ्रं शिनः कवयः ततः परं चित्र लेप्यकृतो माणिक्य बन्धका वैकटिकाः स्वर्णकार वर्द्धकि लोहकारा अन्येपि तथाविधाः । दक्षिणतो भूतभाषा कवयः, इत्यादि । काव्य मीमांसा, अध्याय १०, पृ० ५४-५५ २. वही अध्याय १०, पृ० ५०
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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