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________________ २३ परिशिष्ट (२) कतिपय प्रसिद्ध लोकोक्तियाँ, सूक्तियाँ तथा वाग्धारायें "वरि एक्कलओ वि पंचाणणु सारंग-णिवहु वुण्णाणणु वरि एक्कलओ वि मयलञ्छणु ण य णक्खत्त-णिवहु पिल्लंछणु । वरि एक्कलओ वि रयणायरु णिउ जलवाहिणि-णियरू स-वित्थरु ।। वरि एक्कलओ वि वइसाणरू णउ वण-णिवहु सरुक्खु सगिरिवरु।" परमचरिउ ३८.२ जहिं पहु दुच्चरिउ समायर, तहि जणु सामण्ण काइ करइ । (रिट्ठणेमि चरिउ) भुक्कउ छणयंदहु सारमेउ। (महापुराण १.८.७.) उट्ठाविउ सुत्तउ सीहु केण । (वही, १२.१७.६.) माणभंगु वर मरणु न जीविउ । (वही, १६.२१.८.) को तं पुसइ णिडालइ लिहियउ । (वही, २४. ८.८.) भरियउ पुण रित्तउ होइ राय । (वही, ३९. ८.५.) लूयासुत्ते वज्झउ मसउ णहत्थि णिरुज्झइ । (वही, ३१.१०.९.) जो गोवालु गाइ णउ पालइ सो जीवन्तु दुद्ध ण णिहालइ । जो मालारु वेल्लि णउ पोसइ सो सुफल्लु फल कव लहेसइ ।। (वही, ५१.२.१.) इह संसार दारुण बहु सरीर संघारणे। वसिऊणं दो वासरा के के ण गया गर वरा ॥ (वही, ७. १.) मुच्छं गइ दिज्जइ सलिलु पवणु उवसंतहो किज्जइ धम्म सवणु। किं सुक्के रुक्खें सिंचिएण अविणीयं किं संबोहिएण ॥ (जस• च०, १.२०.१-२) अणइच्छयई होति जिमि दुक्खइं। सहसा परिणवंति तिह सोक्खइं। (भवि० कहा, ३.१७.८.) जोव्वण वियार रस वस पसरि सो सूरउ सो पंडियउ। चल मम्मण वयणु ल्लावएहिं जो परतियहिं न खंडियउ॥ (वही, ३. १८. ९.)
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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