________________
अपभ्रंश-साहित्य
कवि ने अन्त्यानुप्रास का प्रयोग कर मालिनी के एक चरण के दो चरण बना डाले । इस प्रकार सम चतुष्पद मालिनी अर्धसम अष्टपद मालिनी बन गई । प्राचीन रूढ़ि को उसी रूप में स्वीकार न कर उसमें परिवर्तन ला कर नवीनता उत्पन्न करने की प्रकृति अपभ्रंश कवियों में स्वभाव से ही थी ।
अपभ्रंश कवियों की इसी प्रवृत्ति के निम्नलिखित दोहे में भी दर्शन होते हैं-सील रयणु वय किति धरू, सव्व गुणेह उण्णु । सो धणवंतर होइ गरु, सो तिहुयण कय पुण्णु ॥
४०४
सुलोचना च० १८.११
बर्णवृत्तों में भी इन कवियों ने नियमों का कठोरता से पालन नहीं किया । एक दीर्घं नक्षर के स्थान पर दो लघु अक्षरों का प्रयोग कर के भी वर्णवृत्तों का निर्वाह कर लिया गया है । जैसे-
उत्तऊ ।
अस्सयासी मुऊ तेहिता मुच्छिऊ दोणु धणु बाणु हत्थह चुऊ । चेपणा लहिवि कस्सा वि णउं पत्तिउ । सच्च व. ई य त धम्म सुउ पुच्छिउ । सच्च कहि पुत कि मज्झ पुत्तो मुऊ । कण्ह सिक्खाइ राहु ता जंपिउ । दो तु गउ दिट्ठऊ ।
ण
अस्सथामुत्ति णामेण रणि णिट्ठिउ ॥
यशः कोसि कृत हरि० पु० ११.९.
इस चार रगण स्रग्विणी या कामिनी मोहन छन्द में रेखांकित अक्षर एक दीर्घ अक्षर के स्थान पर प्रयुक्त किये गये हैं ।
अपभ्रंश कवियों ने अपनी उपरिनिर्दिष्ट प्रकृति के अनुसार अनेक नवीन छन्दों की सृष्टि की। इसके लिये उन्होंने नये नये छन्दों का निर्माण किया। दो छन्दों के मेल से बन अनेक संकीर्ण-वृत्तों का उल्लेख छन्दकोषों में मिलता है । अपभ्रंश में संकीर्ण-वृत्त उल्लाला, दोहा, गाथा, आभाणक, मात्रा, काव्य ( रोला) और कामिनी मोहन के मिश्रण से बनाये गये हैं । कुण्डलिक ( दोहा + काव्य ), चन्द्रायन ( दोहा + कामिनी मोहन ), साकुल (आभाणक या प्लवंगम + उल्लाला ), रड्डा या वस्तु ( मात्रा + दोहा), छप्पय ( काव्य + उल्लाला ) इत्यादि इसी प्रकार के छन्द हैं । '
अपभ्रंश - साहित्य और हिन्दी की विविध काव्य-पद्धतियाँ
हिन्दी साहित्य की भिन्न भिन्न काव्य पद्धतियाँ जो छन्दों पर आश्रित हैं और जिन
३४. प्रो० वेलणकर, अपभ्रंश मीटर्स, जर्नल आफ दि यूनिवर्सटी आफ बम्बे, जिल्द २, भाग ३, नवं० १९३३ पृ० ३२-६२ ।