SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 408
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९० अपभ्रंश-साहित्य अपभ्रंश साहित्य का हिन्दी साहित्य के विभिन्न कालों के प्रतिनिधि-कवियों पर प्रभाव हिन्दी साहित्य प्रायः चार कालों में बांटा जाता है--वीरगाथाकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल। इनमें प्रथम तीन कालों पर अपभ्रंश साहित्य का जितना प्रभाव परिलक्षित होता है उतना आधुनिक काल पर नहीं । आधुनिक काल की अनेक प्रवृत्तियाँ पाश्चात्य साहित्य के संसर्ग से हिन्दी साहित्य में आई । हिन्दी के वीरगाथा काल का प्रतिनिधि कवि और काव्य, चन्द और पृथ्वीराज रासो माने जाते है। हिन्दी के वीरगाथा काल में अनेक रासो ग्रन्थों का परिगणन किया जाता है। अपभ्रंश साहित्य में भी कुछ रासा ग्रन्थ मिलते हैं जिनका पिछले अध्यायों में विवेचन किया जा चुका है। पृथ्वीराज रासो में प्राप्य अपभ्रंश प्रवृत्तियों का भी पीछे उल्लेख किया जा चुका है। पृथ्वीराज रासो के अतिरिक्त अन्य रासो ग्रन्थों पर भी अपभ्रंश के रासा ग्रन्थों का पर्याप्त प्रभाव दिखाई पड़ता है। नरपति नाल्ह कृत बीसल देव रासो के विषय में डा० रामकुमार वर्मा लिखते हैं। "बीसल देव रासो का व्याकरण अपभ्रंश के नियमों का पालन कर रहा है । कारक, क्रियाओं और संज्ञाओं के रूप अपभ्रंश भाषा के ही हैं, अतएव भाषा की दृष्टि से इस रासो को अपभ्रंश भाषा से सद्यः विकसित हिन्दी का ग्रन्थ कहने में किसी प्रकार की आपत्ति नहीं होनी चाहिये । भाषा की दृष्टि से ही नहीं किन्तु भावधारा और शैली की दृष्टि से भी इस पर अपभ्रंश का पर्याप्त प्रभाव है । अपभ्रंश की उन प्रवृत्तियों के अतिरिक्त जो पृथ्वीराज रासो में पाई जाती हैं, और जिनका पीछे उल्लेख किया जा चुका है, बीसलदेव रासो में अपभ्रंश के रासा ग्रन्थों की अन्य प्रवृत्तियाँ भी दिखाई देती हैं। बीसलदेव रासो अन्य रासो ग्रन्थों से भिन्न, आकार में लघुकाय रचना है। कथावस्तु संक्षिप्त है । यह गीतात्मक काव्य है और सारे काव्य में एक ही छन्द का प्रयोग हुआ है। इन विशेषताओं के कारण इस पर अपभ्रंश के "उपदेशरसायन रास" का प्रभाव अनुमित किया जा सकता है। रासो काव्यों में भाग्यवाद का प्रभाव है। कवि ईश्वर और भाग्य को सबसे बड़ा मानता है । इन पर पूर्ण विश्वास करते हुए वह कर्म पथ पर बढ़ता जाता है । ध्यान देने की बात है कि भाग्य पर भरोसा रखते हुए भी कवि निष्कर्मण्यता का चित्र अंकित नहीं करता। जब भाग्य में जो कुछ लिखा है वह होगा ही फिर डर किस का? मृत्यु से भयभीत होना कायरता है । क्षत्रिय हँसते हँसते रण-भूमि में मृत्यु का आलिंगन करता है । “मरणं प्रकृतिः शरीरिणां विकृतिर्जीवनमुच्यते बुधैः” की यथार्थता इन क्षत्रिय वीरों . १. देखिये पीछे छठा अध्याय, अपभ्रंश महाकाव्य, पृ० १०९ । ' २. डा० रामकुमार वर्मा, हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, प्रयाग, १९४८ ई०, पृ० २०८।
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy