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अपभ्रंश - साहित्य
भलि भंजणु कम्मारि बल वीर नाहु पणमेव : पउम भणइ कक्कक्खरिण सालिभद्द गुण केइ ॥ १ कत्थ वच्छ कुवलय नयण सालिभद्द सुकमाल । भद्दा पभणs देव तु हु कह थिउ इत्तियवार ॥२ arearer नीर निहि सभवसरणि ठिउ सामि । अज्जु माइ मई वंदियउ वीर नाहु सिव गामि ॥ ३ कृति की समाप्ति क्ष, क्षा, से प्रारम्भ होने वाले पद्यों से की गई है-क्षमा समणि भद्दातणदं दिविखउ जिणिहि कुमारु । सालिभद्द, बहु वु करइ आगमु पढइ अपार ।। ६८ ।। क्षामे विणु जिण मुनि सहिउ अणसुण गहिउ उवन्नु । सव्वट्ठह सिद्धिहि गयउ सालिभद्द तहि धन्नु ॥ ६९ ॥ हिन्दी में यह काव्य शैली जायसी के "अखरावट' में भी दिखाई देती है ।
हा मातृका
सालिभद्द कवक के समान ही दूहा मातृका नाम की एक ५७ दोहों की कृति का वर्णन प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह ( वही पृ० ६७-७१ ) में मिलता है । इस में भी दोहों का आदि वर्ण अकारादि क्रम से चल कर क्ष पर समाप्त होता है । कृति में धर्माचरण का उपदेश दिया गया है । कृति के कर्ता और काल के विषय में निश्चय से कुछ नहीं कहा जा सकता । मंगलाचरण से कृति आरम्भ होती है।
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भले भर्लेविणु जगतगुरु पणमउं जगह पहाण ।
जासु पसाइं मूढ जिय पावइ निम्मलु नाणु ॥ ( पद्य सं. १) मण गयवरु झाणु कुसिण ताणिउ आणउ ठाउं । जय भंजेसइ सीलवणु कस्सिइ सिव फल हाणि ॥४॥ सिझइ तसु सवि कज्जडं ( उ ) जसु हियडइ अरिहंतु । चितामणि सारिच्छ जिम एहु महाफलु मंतु ॥ ५ ॥ धंघइ पडियउ जीव तुहुं खणि खणि तुट्टई आउ । दुग्गइ कोइ न रक्खिसइ सयणु न बंधव ताउ ॥ ६ ॥ इसके अनन्तर अकारादि क्रम से पद्य प्रारम्भ होते क्षण भंगुरु देहतणउं अरि जिय भाव न मुच्चइ जिणु मणह जाव
हैं और क्ष में समाप्त होते हैं---
कोइ
विसासु । फुरक्कइ सासु ॥ ५६ ॥
जय तिहुयण स्तोत्र'
यह ३० पद्यों का अभयदेव सूरि का लिखा हुआ अप्रकाशित स्तोत्र है । ग्रन्थ और ग्रन्थकार के विषय में अधिक कुछ निश्चय से नहीं कहा जा सकता । कवि की कविता
१. इलाहाबाद यूनिवर्सटी स्टडीज, भाग १, पृ० १७९ ।