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अपभ्रंश-साहित्य
धार्मिक तत्व और उपदेशों की प्रधानता के कारण काव्य सौन्दर्य का प्रायः अभाव है। षट् कर्म का माहात्म्य बतलाता हुआ कृतिकार कहता है--
"छक्कम्मिहिं सावउ जाणिज्जइ, छक्कमिहिं दिणदुरिउ विलिज्जइ । छक्कमिहिं सम्मत्तु वि सुज्झइ, छक्कम्मिहि घरकम्मि ण मुज्झइ । छक्कम्मिहि जिणधम्म मुणिज्जइ, छक्कम्मिहिं गरजम्मु गणिज्जइ।
छक्कम्मिहिं वसि जाहिं गरवर, छक्कम्मिहि देववि आणायर । छक्कम्मिहि वंछिउ संपज्जद्द, छक्कम्मिहिं सुरदुंदुहि वज्जइ । छक्कम्मिहि उप्पज्जइ केवलु, छक्कम्मिहि लब्भइ सुहु अवियलु।
(प्र० सं० पृष्ठ० १७१-१७२) कृति में पद्धडिया और घत्ता ही प्रधान रूप से प्रयुक्त हुए हैं। इनके अतिरिक्त गाथा, रचिता, हेला, मंजरी, खंडय, दोहडा, आरणालादि छन्द भी बीच बीच में मिलते हैं। आठवीं सन्धि में प्रत्येक कडवक के आरम्भ में दोहा प्रयुक्त हुआ है। कडवक में चौपाई का प्रयोग मिलता है। जैसेदोहड़ा- कम्मारउ सत्थाहिवहो, एहु तुह णयरि वसेइ ।
अण्णु ण याणउ किंपि जइ, सो वह देव कहेइ ॥ सत्थबाहु वृत्तउ वसु हेसे, हवकारे वि विहिय सन्तोसें। कवणु पुरिसु इउ सच्चु पयासहि, अम्हहं मण संदेहु विणासहि ।
इत्यादि, ८.११ कृतिकार ने इस ग्रन्थ को महाकाव्य कहा है किन्तु यह महाकाव्य के लक्षणों से रहित है । कथानक और कवित्व की दृष्टि से भी महाकाव्य नहीं कहा जा सकता। सन्धियों का नामकरण भी जलपूपा कहा, गंधपूया कहा, अक्खय पूया विहाण कहा इत्यादि नामों से किया गया है।
अणुवय रयण पईउ (अणुव्रत रत्न प्रदीप) यह ग्रन्थ अप्रकाशित है । हस्त लिखित प्रति प्रो० हीरालाल जैन के पास है।
ग्रन्थ कवि लक्खण (लक्ष्मण) द्वारा रचा गया । ग्रन्थ में आठ परिच्छेद (सन्धियाँ) हैं। इसकी रचना में कवि को ९ मास लगे । ग्रन्थ वि० सं० १३१३ (ई० सन् १२५६) में रचा गया।
१. प्रो० हीरालाल जैन, जैन-सिद्धान्त-भास्कर, भाग ६, किरण १ में पृ० १५५-१७७
और सम रिसेंट फाइन्ड्स आफ अपभ्रंश लिट्रेचर, नागपुर युनिवर्सिटी जर्नल, दिसं० १९४२, पृ० ८९-९१ । २. तेरह सय तेरह उत्तराले परिगलिय दिक्कमाइच्च काले।