________________
३४६
अपभ्रंश-साहित्य जो सृष्टि, प्रलय आदि के भी ज्ञाता हैं, अपनी नारी के हरण को कैसे न जान पाये ? और उसके विषय में वन वन पूछते फिरे। इसके पश्चात् सातवीं सन्धि में गान्धारी के सौ पुत्रों की उत्पत्ति और पाराशर का धीवर कन्या से विवाह वर्णित किया गया है। आठवीं सन्धि में कुंती से कर्ण की उत्पत्ति और रामायण की कथा पर व्यंग्य किया गया है। नवीं सन्धि में मनवेग अपने मित्र पवन के सामने ब्राह्मणों से कहता है कि एक बार मेरे सिर ने धड़ से अलग होकर वृक्ष पर चढ़कर फल खाये। अपनी बात की पुष्टि के लिए वह रावण और जरासंध का उदाहरण देता है। इसी प्रसंग में मनवेग श्राद्ध की असत्यता का प्रतिपादन करता हआ कहता है कि यह कैसे संभव है कि इस लोक में ब्राह्मण भोजन करें तो परलोक में नाना योनियों में जाकर शरीर धारण करने वाले मृत और दूरंगत पितर, उसे प्राप्त कर लें ? इस प्रकार नाना कपोल कल्पनाओं को मिथ्या बतला कर केवल धार्मिक भावनाओं की निन्नलिखित संस्कृत पद्य से पुष्टि की गई है
प्राणापातानिवृत्तिः परधन हरणे संयमः · सत्य वाक्यं लोके शक्त्या प्रदानं युवति जन कथा मूक भावः परेषां । तृष्णा स्रोतो विभंगो गुरुषु च विनतिः सर्व सत्वानकंपा सामान्यं सर्व मपेष्वनुपहत मति श्रेयसामेष पन्थाः॥
९.२४ दसवीं सन्धि में भी गोमेध, अश्वमेधादि यज्ञों और नियोगादि पर व्यंग्य किया है। इस प्रकार मनवेग अनेक पौराणिक कथाओं का निर्देश कर और उन्हें मिथ्या प्रतिपादित कर ब्राह्मणों को परास्त करता है। पवनवेग भी मनवेग की युक्तियों से प्रभावित होता है। उसका विश्वास ब्राह्मण धर्म से उठ जाता है और वह जैनधर्म में दीक्षित हो जाता है । जैनधर्मानुकूल उपदेशों और आचरणों के निर्देश के साथ ग्रन्थ समाप्त होता है। ___ यह काव्य ब्राह्मण धर्म पर व्यंग्य करने के हेतु ही रचा गया जान पड़ता है। स्थान स्थान पर इस धर्म के आख्यानों पर गहरे व्यंग्य किये गये हैं और परिणामस्वरूप जैनधर्म के प्रति रुचि जागृत की गई है। कृति में धार्मिक तत्व की प्रधानता होने के कारण कवित्व अधिक प्रस्फुटित नहीं हो सका। कवित्व की दृष्टि से पहली और ग्यारहवीं सन्धियाँ उल्लेखनीय हैं।
कवि की कविता का उदाहरण निम्नलिखित उद्धरणों में देखा जा सकता है। कवि वैजयन्ती नगरी का वर्णन निम्नलिखित शब्दों में करता है
तहिं पंचासह मज्मि सुरिद्धी, णयरी वइजयंति सुपसिद्धी। कामिणि व्व जा णयण पियारी, जहिं दीसइ तहिं सुहय जणेरी। जा सुरतरु व वर्णण विसालें, अइरेहइ णेत्तण व णीलें। परिहइ सारस हंस रवालए, मेहलाइ णं किंकिणि मुहलए। सिय पायार भित्ति कंचुलियए, पंच वण्ण धयमाल घुलियए। उप्परियण सोहइ सोहंती, कणय कलस उरोज दरिसंती। गोउरेण(हि) णं रूंदें वयणे, हसइ व तोरण मोत्तिय रयणे।