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________________ ३०८ अपभ्रंश-साहित्य चित्त शुद्धि पर सरह ने बहुत ध्यान दिया है। "चितेके सअल वीअं भवणिबाणो वि जस्स विफुरंति। तं चितामणि रूअं पणमह इच्छा फलं वेति ॥ चित्ते बज्झे बज्झइ मुक्के मुक्कइ णस्थि संदेहा । बज्झति जेण वि जड़ा लजु परिमुच्चंति तेण बि वुहा॥ अर्थात् चित्त ही सबका बीजरूप है । भव या निर्वाण भी उसी से प्राप्त होता है। उसी चिंतामणि-रूप चित्त को प्रणाम करो। वही अभीष्ट फल देता है। चित्त के बद्ध होने पर मानव बद्ध कहा जाता है । उसके मुक्त होने पर निस्सन्देह मुक्त होता है । जिस चित्त से जड़ मूर्ख बद्ध होते हैं उसी से विद्वान् शीघ्र ही मुक्त हो जाता है। यह चित्त ही सब कुछ है । इस सर्वरूप चित्त को ख-सम, आकाश के समान शून्य अथवा निर्लेप, बना देना चाहिये। मन को भी शून्य स्वभाव का बना देना चाहिये । इस प्रकार वह मन अमन हो जाय अर्थात् अपने चंचल स्वभाव के विपरीत निश्चल हो जाय, तभी सहज स्वभाव की प्राप्ति होती है। "सव्व रूअ तहि खसम करिज्जइ, खसम सहावे मणवि धरिज्जइ । सो वि मणु तहि अमणु करिज्जइ, सहज सहावै सो पर रज्जइ ॥ सरह ने राग रागनियों में बद्ध गानों में भी यही विचार प्रकट किये हैं । निम्नलिखित गान में सरह ने सहज मार्ग का निर्देश किया है-- राग--देशाख "नाद न बिन्दु न रवि शशि मण्डल चिअ राम सहावे मुफल ॥ उजु रे उजु छाडि मा लेहुरे वंक निअडि बोहि मा जाहुरे लांक ॥ हाथरे कांकण मा लेउ दापण अपणे अपा बुझतु निअ मण ॥ पार उआर सोइ मजिअ दुज्जन संगे अवसरि जाइ ॥ वाम दाहिण जो खाल विखला सरह भगइ बापा उजु वाट भइला ॥ (चर्यापद ३२) अर्थात् नाद और विन्दु, सूर्य और शशि मंडल कुछ नहीं, चित्तराज स्वभाव से युक्त है । अरे ! ऋजु मार्ग को छोड़कर कुटिल मार्ग का आश्रय न लो। "बोधि निकट है कहीं दूर (लंका) मत जाओ। हस्तस्थित कंकण के होते हुए दर्पण क्यों लेते हो ? अपने आप आत्म तत्व को निश्चय से (या निजमन से) जानो। इसी मार्ग का अनुगामी पार पहुँच आनन्द में मग्न हो जाता है। दुर्जन संग से मानव भटक जाता है, मरण को प्राप्त
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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