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अपभ्रंश-साहित्य "विसया चिति म जीव तुहुं विसय ण भल्ला होति । सेवंताहं वि महुर वढ पच्छई दुक्खई दिति" ॥२०॥ "मूढा सयलु वि कारिमउ मं फुड तुहं तुस कंडि।
सिव पइ णिम्मलि करहि रइ घरु परियणु लहु छंडि" ॥१३॥' विषय सब क्षणिक हैं
"विसय सुहा दुइ दिवहडा पुणु दुक्खहं परिवाडि । 'भुल्लउ जीव म वाहि तुहुं अप्पा खंधि कुहाडि" ॥१७॥ "देवलि पाहणु तिथि जलु पुत्थई सव्वई कन्वु ।
वत्थु जु दीसइ कुसुमियउ इंधणु होसइ सव्वु" ॥१६१॥' विषयोपभोग--इन्द्रिय सुख और मोक्ष दोनों भिन्न-भिन्न मार्ग हैं । दोनों पर चलना असम्भव है, एक ही को चुनना पड़ेगा।
V "वे पंथेहि ण गम्मइ वे मुह सूई ण सिज्जए कंथा।
विण्णि ण हुंति आयाणा इंदिय सोक्खं च मोक्खं च" ॥२१३॥ अर्थात् दो मार्गों पर नहीं जाया जा सकता, दो मुख वाली सूई से कंथा नहीं सीयी जा सकती। अरे अज्ञानी! इंद्रिय सुख और मोक्ष दोनों साथ-साथ नहीं प्राप्त हो सकते।
बाह्य कर्म-कलाप से यदि आन्तरिक शुद्धि न हो तो उसे भी व्यर्थ ही समझो। यदि कर्म-कलाप से आत्मानुभूति न हो तो वह किस काम का ?
"सप्पि मुक्की कंचुलिय जं विसु तं ण मुएइ।
भोयहं भाउ ण परिहरइ लिंगग्गहणु करेइ" ॥१५॥ अर्थात् सांप केंचुली को छोड़ देता है विष को नहीं छोड़ता। इसी प्रकार विषय भोगों के परित्याग से यदि विषय वासना और भोग भाव नहीं छूटता तो अनेक वेष और चिह्नों को धारण करने से क्या लाभ ? .. "मुंडिय मुंडिय मुंडिया सिर मुंडिउ चित्तु ण मुंडिया।
चित्तहं मुंडणु जि कियउ संसारहं खंडणु ति कियउ" ॥१३५॥ कबीर के निम्नलिखित दोहे से तुलना कीजिये। “दाढ़ी मूंछ मुंडाय के, हुआ घोटम घोट ।
मन को क्यों नहीं मूडिये, जामे भरिया खोट ॥" कवि सब कर्म साधनों को व्यर्थ समझता है यदि वे आत्मदर्शन न करा सकें
"हलि सहि काई करइ सो दप्पणु । - जहिं पडिबिंबु ण दीसइ अप्पणु" ॥
१. तुलना कीजिये परमप्पयासु २. " " वही ३. , , वही
२.१२८ पृ० २७० २.१३८ पृ० २७० २.१३० पृ० २७०