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अपभ्रंश-साहित्य
तं फरसउ मिल्हि तु हु विनियमग्गि पभणिज्ज शतिहि । तिम जंपिय जिम कुवइ गहु तं पभणिय जं जुत्तु, आसोसिवि वर कामिणिहि वट्टाउ पडिउत्तु ॥”
अर्थात् पथिक ! यदि दुःखाकुला, कामाग्निपीड़िता और विरह-व्याकुलाता मैंने कोई अनी बात कही हो तो उसे न कह कर नम्र शब्दों में प्रिय से कहना । ऐसी कोई बात न कहना जिससे मेरा पति क्रुद्ध हो जाय। जो उचित हो वही कहना । यह कह कर वह पथिक को आशीर्वाद देती है और विदा करती है ।
पथिक को विदा कर जब वह विरहिणी शीघ्रता से वापस लौट रही थी, उसने ज्योंही दक्षिण की ओर देखा उसे अपना पति लौट कर आता दिखाई दिया । उसका हृदय आनन्द से उद्वेलित हो उठा । कवि आशीर्वाद के शब्दों से ग्रन्थ समाप्त करता है कि जिस प्रकार अचानक ही उस सुन्दरी का कार्य सिद्ध हुआ उसी प्रकार इस काव्य के पढ़ने और लिखने वालों का कार्य सिद्ध हो । अनादि और अनन्त परम पुरुष की जय हो । '
काव्य के इस छोटे से कथानक में अलौकिक घटनाओं का अभाव है । ग्राम्य जीवन का चित्र काव्य में दिखाई देता है। काव्यगत वर्णनों से प्रतीत होता है कि कवि का हृदय लौकिक भावनाओं से प्रभावित था ।
वस्तु वर्णन - - यह काव्य एक सन्देश काव्य है अतः इसमें नगरादि के विस्तृत वर्णनों अपेक्षा वियोगिनी के हृदय का चित्रण है । ऐसा होते हुए भी काव्य के आरम्भ में कवि ने सामोरु नगर का, वहाँ को वारवनिताओं का ( २.५५ -६४ ) और वहाँ के उद्यानों का वर्णन किया है ।
सामोरु का वर्णन (२.४२ - ४६ ) करता हुआ कवि कहता है कि वह नगर धवल और उच्च प्रासादों से मण्डित था । उसमें कोई मूर्ख न था, सब लोग पण्डित थे । नगर के अन्दर मधुर छंद और मधुर प्राकृत गीत सुनाई देते थे । कहीं चतुर्वेदी पंडित वेद को, कहीं बहुरूपिये रास को प्रकाशित करते थे । कहीं सुदय वच्छ कथा, कहीं नल चरित, कहीं भारत और कहीं रामायण का उच्चारण होता था । कहीं बांसुरी, वीणा, मुरजादि वाद्य यन्त्र सुनाई देते थे । कहीं सुन्दरियाँ नाच रही थीं । कहीं लोग विविध नट,
१. तं पहुंजिवि चलिय दीहच्छि
अइतुरिय, इत्थंतरिय दिसि दक्खिण तिणि जाम दरसिय,
झत्ति हरसिय ।
आसन्न पहावरिउ दिट्ठ णाहु तिणि जेम अचितिउ कज्जु तसु सिद्ध खर्णाद्धि महंतु, तेम पढंत सुणंतयह जयउ अणाइ अणंतु ॥
संदेश रासक, ३. २२३