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________________ अपभ्रंश - खंडकाव्य (धार्मिक) २०५ प्रकृति वर्णन में एक हलकी सी उपदेश भावना भी मिलती है । सूर्योदय का वर्णन करता हुआ कवि कहता है- परिगलय रयणि उग्गमिउ भाणु उज्जोइउ मज्झिम भुयण भाणु । विच्छाय कंति ससि अत्थमेव सकलंकह कि थिरु उदउ होइ । मलति कुमुय महयर मुयंति थिर नेह मलिण कि कह वि हुंति । ३. २ अर्थात् रात बीत गई सूर्य उदित हुआ । *मंद कांति वाला चन्द्रमा अस्त हो रहा है । कलंकित का उदय क्या स्थिर रह सकता है ? कुमुद मुकुलित हो रहे हैं मधुकर उन्हें छोड़ उड़ रहे हैं- क्या मलिन काले कहीं स्थिर प्रेमी होते हैं ! भाषा -- कवि की भाषा सरल और चलती हुई है । इस भाषा में प्राचीन संस्कृत - प्राकृत की धारा की ओर प्रवृत्ति नहीं दिखाई देती । पुष्पदन्त में भाषा की दो धारायें स्पष्ट रूप से दिखाई देती थीं किन्तु धाहिल की रचना में तत्कालीन लोकप्रचलित अपभ्रंश भाषा की ही धारा बहती हुई दिखाई देती है । ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग नहीं दिखाई देता । किन्तु प्रभाववृद्धि के लिए शब्दों की आवृत्ति कवि ने की है (जैसे १. ८; ४.२; ४. ३ में ) । सुभाषित -- भाषा में स्थान स्थान पर वाग्धाराओं, लोकोक्तियों और सुभाषितों का प्रयोग भी दिखाई देता है । "ओसह निरु मिट्ठ विज्जुवइट्ठ अहु जण कासु न होइ पिउ ।” २. ७.८८ हे लोगो ! अतिशय मधुर और वैद्य निर्दिष्ट औषध किस को अच्छी नहीं लगती है ? "उइइ चंवि कि तारियह" चन्द्र के उदय हो जाने पर तारों से क्या ? "अलि वंचेवि यइ वडले लग्गु ज जसु मणिटठु तं तासु लग्गु ।” भ्रमर केतकी को छोड़कर वकुल के पास चला जाता है, जो जिसको अभीष्ट होता है वह उसी में रत होता है । "कउ मित्त-विओउ न टुक्खु देई" ३. १.७ १. १०. ३३ मित्र-वियोग किसे दुःख नहीं देता ? काव्य में अनेक शब्द-रूप हिन्दी शब्दों से मिलते जुलते से हैं । ' १. उदाहरण के लिए- नक्कु -- नाक (१.१२.५४ ) ; निक्कालइ - निकालता है (१.१३.६९ ) ; घर ( १.१४.७८ ) ; फुट्टइ भंड -- फूटा बर्तन (१.१४.१८४ ) ; पूरिउ चक्कु -
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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