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अपभ्रंश - खंडकाव्य (धार्मिक)
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प्रकृति वर्णन में एक हलकी सी उपदेश भावना भी मिलती है । सूर्योदय का वर्णन करता हुआ कवि कहता है-
परिगलय रयणि उग्गमिउ भाणु उज्जोइउ मज्झिम भुयण भाणु । विच्छाय कंति ससि अत्थमेव सकलंकह कि थिरु उदउ होइ ।
मलति कुमुय महयर मुयंति थिर नेह मलिण कि कह वि हुंति ।
३. २ अर्थात् रात बीत गई सूर्य उदित हुआ । *मंद कांति वाला चन्द्रमा अस्त हो रहा है । कलंकित का उदय क्या स्थिर रह सकता है ? कुमुद मुकुलित हो रहे हैं मधुकर उन्हें छोड़ उड़ रहे हैं- क्या मलिन काले कहीं स्थिर प्रेमी होते हैं !
भाषा -- कवि की भाषा सरल और चलती हुई है । इस भाषा में प्राचीन संस्कृत - प्राकृत की धारा की ओर प्रवृत्ति नहीं दिखाई देती । पुष्पदन्त में भाषा की दो धारायें स्पष्ट रूप से दिखाई देती थीं किन्तु धाहिल की रचना में तत्कालीन लोकप्रचलित अपभ्रंश भाषा की ही धारा बहती हुई दिखाई देती है । ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग नहीं दिखाई देता । किन्तु प्रभाववृद्धि के लिए शब्दों की आवृत्ति कवि ने की है (जैसे १. ८; ४.२; ४. ३ में ) ।
सुभाषित -- भाषा में स्थान स्थान पर वाग्धाराओं, लोकोक्तियों और सुभाषितों का प्रयोग भी दिखाई देता है ।
"ओसह निरु मिट्ठ विज्जुवइट्ठ अहु जण कासु न होइ पिउ ।”
२. ७.८८
हे लोगो ! अतिशय मधुर और वैद्य निर्दिष्ट औषध किस को अच्छी नहीं लगती है ?
"उइइ चंवि कि तारियह"
चन्द्र के उदय हो जाने पर तारों से क्या ?
"अलि वंचेवि यइ वडले लग्गु ज जसु मणिटठु तं तासु लग्गु ।”
भ्रमर केतकी को छोड़कर वकुल के पास चला जाता है, जो जिसको अभीष्ट होता है वह उसी में रत होता है ।
"कउ मित्त-विओउ न टुक्खु देई"
३. १.७
१. १०. ३३
मित्र-वियोग किसे दुःख नहीं देता ?
काव्य में अनेक शब्द-रूप हिन्दी शब्दों से मिलते जुलते से हैं । '
१. उदाहरण के लिए-
नक्कु -- नाक (१.१२.५४ ) ; निक्कालइ - निकालता है (१.१३.६९ ) ; घर ( १.१४.७८ ) ; फुट्टइ भंड -- फूटा बर्तन (१.१४.१८४ ) ; पूरिउ चक्कु -