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________________ अपभ्रंश-खंडकाव्य (धार्मिक) २०३ करते हुए कवि ने परम्परागत उपमानों का ही प्रयोग किया है । अन्तिम पत्ता में उसे उन्नय-वंसुम्भव आसासिय-तिहुयण-जयहु । अहिणव-गुण-सुंदरि चाव-लट्ठि मयरद्धयहु ॥ २. ३. ३६ त्रिभुवन को जीतने का आश्वासन देने वाले मकरध्वज की अभिनव अभिनव-गुणसुन्दरी चाप-यष्टी कह कर उसके सौन्दर्य के अनुपम और अत्यधिक प्रभाव की ओर संकेत किया है । श्लिष्ट गुण शब्द से वर्णन में चमत्कार भी आ गया है। विप्रलम्भ श्रृंगार के भी अनेक उदाहरण काव्य में मिलते हैं। पति परित्यक्ता यशोमती के करुण क्रन्दन की ओर ऊपर निर्देश किया जा चुका है। विवाह से पूर्व कामाग्नि से पीड़ित पद्मश्री का वर्णन कविं ने २. ११-१२ में किया है । इस प्रेम विह्वलता का आविर्भाव कवि ने पद्मश्री और समुद्रदत्त दोनों में दिखाकर प्रेम को उभयापेक्षी बनाया है। वियोग वर्णन का एक अन्य अवसर समुद्रदत्त के माता के पास चले जाने पर उपस्थित होता है । पद्मश्री कभी ज्योतिषियों से पूछती है कि मेरा पति कब लौटेगा। कभी कौए को संबोधन करती है कि यदि तुम्हारे शब्द से पति आ गया तो मैं तुम्हें दही भात खिलाऊँगी। आंखों से गालों पर बहते बड़े बड़े आँसुओं से पद्मश्री दिन प्रतिदिन क्षीण होने लगी और कृष्ण पक्ष की निस्तेज चन्द्रलेखा के समान हो गई (३. ४) । ____ इसी प्रकार विरह वर्णन का एक अन्य अवसर समुद्रदत्त के पद्मश्री को परित्याग कर चले जाने पर आता है। पद्मश्री की अवस्था का वर्णन करता हुआ कवि कहता अच्छेइ वाल जिह बुन्न हरिणि नइ कलुणइं? शत्ति विहाइ रयणि । पउमसिरि-सरीरह जेम्व कंति गक्खत्त-निवह नयहलि गलति । इंदिय-सुहं व नासइ तमोहु कुक्कुड-रउ पसरइ नाइ मोहु । गयणे वि चंदु विच्छाउ जाउ सोयं वि व विइंयभ चक्कवा । नयणा इव कुमुयई संकुयंति आसा इव दोहउ दिसउ होति । उग्गमइ अरुणु संताउ नाइ रवि बुद्धि ? जेम्व निसि खयह जाइ । पत्ता--हरिसो इव निग्गउ कुमरु सदेसहु पट्ठियउ । दोहग्गु जेम्व वर-वालहि उयलि ? महीयलि संठियउ॥ ३. ९.१७-२३ अर्थात् वह बाला दुःखिनी हरिणी के समान थी। जैसे पद्मश्री के शरीर में से वैसे ही आकाश में से चन्द्र-नक्षत्र की कान्ति लुप्त हो गई। मोह, मुर्गों के शब्द के समान फैलने लगा। आकाश में चन्द्र समान वह निस्तेज हो गई। जिस प्रकार उसका शोक बढ़ता जाता उसी प्रकार चक्रवाक का आनन्द । उसकी आँखों के समान कुमुद संकुचित होने लगे। 1. जिस प्रकार से उसकी आशा दीर्च हुई उसी प्रकार दिशाएँ दीर्घ हो गई। उसके संताप के समान सूर्य उदित हुआ । ज्यों-ज्यों दिन बढ़ता या बीतता जाता है, विरहिणी रात्री की
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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