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________________ अपभ्रंश-विषयक निर्देश अर्थात् संस्कृत से विकृत या अपभ्रष्ट प्राकृत का नाम भाषा और प्राकृत से विकृत बोली विभाषा कहाती है। इससे प्रतीत होता है कि ये विभाषाएँ कभी साहित्यिक रूप से प्रचलित न थीं। संभवतः देश के साथ भी इनका सम्बन्ध प्रारम्भ में न था। अशिक्षित वनवासी आदि ही इनका व्यवहार करते थे। भामह (६ठी शताब्दी) अपभ्रंश को काव्योपयोगी भाषा और काव्य का एक विशेष रूप मानते हैं शब्दार्थों सहितौ काव्यं गद्य पधं च तद् द्विधा । संस्कृतं . प्राकृतं चान्यदपभ्रंश इति त्रिधा ॥ काव्यालंकार, १. १६, २८ दंडी (७ वीं शताब्दी) का विचार है आभीरादिगिरः काव्येष्वपभ्रंश इति स्मृताः । शास्त्रेषु संस्कृतादन्यदपभ्रंशतयोदितम् ॥ काव्यादर्श १. ३६ अर्थात् भाषाशास्त्र या व्याकरण में अपभ्रंश का अर्थ है संस्कृत से विकृत रूप । काव्य में आभीरादि की बोलियाँ अपभ्रंश कहलाती हैं । दंडी ने समस्त वाङ्मय को चार भागों में विभक्त किया है तदेतद् वाङ्मयं भूयः संस्कृतं प्राकृतं तथा । अपभ्रंशश्च मिश्रं चेत्याहुरार्याश्चतुर्विधम् ॥ काव्या० १. ३२ अपभ्रंश भी वाङ्मय का एक भेद है । इनके समय साहित्यिक नाटकों में निम्न श्रेणी के पात्रों द्वारा ही इसका प्रयोग न होता था अन्यथा वाङ्मय के भेदों में अपभ्रंश की गणना न होती । दंडी ने अपभ्रंश में प्रयुक्त होने वाले प्रोसरादि कुछ छन्दों या विभागों का भी निर्देश किया है संस्कृतं सर्गबन्धादि प्राकृतं स्कन्धकादि यत् । प्रोसरादिरपभ्रंशो नाटकादि तु मिश्रकम् ॥ काव्या० १. ३७ उपरिलिखित उद्धरणों से प्रतीत होता है कि अपभ्रंश का आभीरों के साथ संबंध बना हुआ था और इसीसे अपभ्रंश 'अाभीरोक्ति' या 'आभीरादिगीः' कही गई है। किन्तु आभीरोक्ति होते हुए भी इस समय अपभ्रश में काव्य रचना होने लग गई थी। वलभी (सौराष्ट्र) का राजा धरसेन द्वितीय अपने पिता गुहसेन के विषय में कहता है कि वह संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रश तीनों भाषाओं में प्रबन्ध-रचना में निपुण था। संस्कृतप्राकृतापभ्रंशभाषात्रयप्रतिबद्ध प्रबन्धरचना निपुणतरान्तःकरणः इत्यादि ।' वलभी के धरसेन द्वितीय का दानपत्र १. इंडियन एंटिक्वेरी, भाग १०, अक्तू० १८८१, पृ० २८४ ।
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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