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अपभ्रंश-खंडकाव्य (धार्मिक)
१९१ से विदा होता है और अकेला ही कर्मानुकूल सुख दुःख भोगता है। अन्तिम समय में न बन्धु बान्धव और न धन उसके साथ जाता है ।
जीवहो सुसहाउ ण अत्थि को वि गरयम्मि पडतउ धरइ जो वि। सुहि सज्जण गंदण इट्ठ भाय ण वि जीवही जंतहो ए सहाय । णिय जणणि जणणु रोवंतत्याई जीवें सहुं ताई ण पउ गयाइं। धणु ण चलइ गेहहो एक्कु पाउ एक्कलउ भुजंइ धम्मु पाउ । तणु जलणि जलंतइं परिवडेइ एक्कलउ वइवसघरि ज चडेइ । जहिं णयण णिमेसु ण सुहु हवेइ एक्कलउ तहिं दुहु अणु हवेइ । अहि पउल सीह वणयरहं मज्झे उप्पज्जइ एक्कु वि जिउ असझे।
सुर खेयर किणर सुहयगाम तहि भुंजइ एक्कु वि जियइ जाम । घता-इह अणु वेक्खा जो अणुसरइ सीले मंडिवि णिययतणु ।
सासयपए सो सुहणिलए एक्कलउ सोहइ मुक्कतणु ॥ ९.९ प्रकृति वर्णन-कवि ने यद्यपि प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन किया है किन्तु वर्णनों में कोई विशेष चमत्कार और नबीनता नहीं मिलती। कवि का हृदय प्रकृति में भली भांति रम नहीं पाया । प्रकृति उसके हृदय में वह स्पन्दन और स्फूर्ति नहीं पैदा कर सकी जो इस के पूर्व पुष्पदन्त आदि कवियों में दिखाई देती है। उदाहरण के लिए एक दो प्रसंग नीचे दिये जाते हैं। ___ करकंड के प्रयाण करते हुए मार्ग में उसे गंगा नदी मिलती है। गंगा का वर्णन कवि ने निम्न शब्दों में किया है
गंगा पएसु संपत्तएण गंगाणइ दिट्ठी जंतएण। सा सोहइ सियजल कुडिलवंति णं सेयभुवंगहो महिल जंति । दूराउ वहंती अइ विहाइ हिमवंत गिरिदंहो कित्ति गाइ । विहिं कूलहिं लोहि ण्हतएहिं आइच्चहो जलु परिदितएहि । दम्भ किय उड्ढहिं करयलेहि गइ भणइ णाई एयहिं छलेहिं । हडं सुद्धिय णिय मग्गेण जामि मा रूसहि अम्हहो उवरि सामि ।
३. १२. ५-१०. अर्थात् शुभ्र जल युक्त कुटिल प्रवाह वाली गंगा ऐसी शोभित हो रही थी मानो शेष नाग की स्त्री जा रही हो । दूर से बहती हुई गंगा अत्यधिक शोभित हो रही थी मानो गिरिराज हिमाचल की कीर्ति प्रवाहित हो रही हो । दोनों कूलों पर लोग स्नान कर रहे थे, आदित्य को जल दे रहे थे, मानों दर्भयुक्त दोनों हाथ ऊपर उठाये हुए गंगा कह रही हो-हे स्वामिन् (करकंड) में छल रहित शुद्ध हूँ, अपने मार्ग पर जा रही हूँ मुझ
२. पउ--पद, पैर। पाउ--पाप। वइवस--वैवस्वत, यम। अणुहवेइ-अनु
भव करता है। सुहय गाम-सुभग ग्राम । जाम--यावत् । सासय पए--- शाश्वत पद में।