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________________ अपभ्रंश-साहित्य वारह अणुपेहाउ भावणाए विज्जुच्चरस्स सव्वह सिद्धि गमणं नाम एयारसमो संधी परिछेउ सम्मतो।" कवि ने अपने ग्रंथ को शृङ्गार वीर महाकाव्य कहा है। काव्य में शृङ्गार रस का आभास तो अनेक स्थलों पर मिलता है किन्तु युद्ध वर्णन में वीर रस का परिपाक नहीं हो पाया। सभी काव्यों में विवाह से पूर्व वीरता प्रदर्शन के अवसर मिलते हैं इसमें भी वैसा ही हुआ। जंबू के माता पिता उसे सांसारिक भोग में लिप्त कराना चाहते थे । एतदर्थ अनेक सुन्दरियों का चित्र कवि ने उपस्थित किया है। ४. १४ में केरलि, कोतलि, सज्झाइरि (सहयाचल वासिनी), मरहट्ठ, मालविणि आदि अनेक प्रकार की स्त्रियों के स्वभाव का भी निर्देश किया है। कवि के इस वर्णन में रीति कालीन नायिका भेद की प्रवृत्ति का अस्फुट सा आभास परिलक्षित होता है (जं. च. ४.११-१४)। इसी प्रसंग में शृङ्गार के उद्दीपन के लिए कवि ने अनेक प्राकृतिक दृश्य भी उपस्थित किये हैं (जं. च. ४. १६.; ४. २०) किन्तु काव्य में प्रधानता अन्य काव्यों के समान निर्वेद भाव की ही है । काव्य का आरम्भ और समाप्ति धार्मिक वातावरण में ही होती है। काव्य में शृङ्गार के वर्णनों की बहुलता है। कवि इनके द्वारा सांसारिक विषयों की ओर प्रवृत्त करता है । शृङ्गार मूलक वीर रस के वर्णनों में वीर रस के प्रसंग भी मिलते हैं। ऐसे प्रसंग प्रायः सभी अपभ्रंश काव्यों में मिलते हैं। किन्तु इन दोनों रसों का पर्यवसान शान्त रस में होने से इन रसों की प्रधानता नहीं फिर काव्य को शृङ्गार वीर काव्य कहना कहाँ तक संगत है ? काव्य में सांसारिक विषयों को त्याग कर वैराग्य भाव जागृत करने में ही उत्साह भाव दिखाई देता है। शृङ्गारिक भावनाओं को दबा कर उन पर विजय पाने में ही वीरता दिखाई देती है और इसी दृष्टि से इसे शृङ्गार वीर काव्य कहा जा सकता है । अतः डा० रामसिंह तोमर के विचार में कृति को शृङ्गार वैराग्य कृति कहना अधिक संगत होगा।' पांचवीं संधि के अन्तर्गत युद्ध के प्रसंग में बीभत्स और अद्भुत रस भी पाये जाते हैं जो वीर रस के सहायक हैं। प्रकृति वर्णन-कृति की तीसरी और चौथी संधि में उद्यान और वसन्तादि के वर्णनों द्वारा कवि ने प्राकृतिक चित्र उपस्थित किये हैं। ये वर्णन शृङ्गार की पृष्ठभूमि के रूप में प्रस्तुत किये गये हैं, अतएव उद्दीपन रूप में ही अंकित समझने चाहिये। ये वर्णन रति भाव के अनुकूल कोमल और मधुर पदावली से युक्त हैं। उदाहरणार्थ निम्नलिखित वसन्त वर्णन में शब्द योजना भी वसन्त के समान सरस और मधुर है दिणि दिणि रयणीमाणु जहं खिज्जइ, दूर पियाण णीद्द तिह खिज्जइ । दिवि दिवि दिवस पहरु जिह वड्ढइ, कामुयाण तिह रइ रसु वड्ढइ । दिवि दिवि जिह चूयउ मउ रिज्जइ, माणिणि माणहो तिह मउ खिज्जइ । १. अनेकान्त वर्ष ९, किरण १० में श्री रामसिंह तोमर का लेख, अपभ्रंश का एक शृंगार वीरकाव्य।
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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