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अपभ्रंश-खंडकाव्य (धार्मिक)
१४९ पुष्पदन्त की उत्पत्ति पर दो कहे जाने जगे और देवदत्त के उत्पन्न होने पर तीन कवि हो गये।
प्रथम संधि की समाप्ति पर कवि ने संस्कृत श्लोकों में अपनी स्तुति की है। इसी प्रकार अन्य सन्धियों के प्रारम्भ में कवि ने बड़े अभिमान के साथ आत्मश्लाघा प्रदर्शित
कथानक-ग्रंथ का कथानक संक्षेप में इस प्रकार है
मंगलाचरण के अनन्तर कवि सज्जन-दुर्जन-स्मरण करता है । अपने से पूर्व काल के कवियों का स्मरण करता हुआ अपनी अल्पज्ञता का प्रदर्शन करता है । पुनः मगध देश और राजगृह का सुन्दर काव्य शैली में वर्णन किया गया है। मगध के राजा श्रेणिक और उसकी रानियों का वर्णन है । नगर के समीप उपवन में इन्द्र द्वारा रचे भगवान् वर्द्धमान के समवसरण में पहुँच कर मगधराज जिन भगवान की स्तुति करते हैं (१) ।
श्रेणिक राज के प्रश्नों का जिनवर उत्तर देते हैं तभी आकाश मार्ग से एक तेजपुंज विद्युन्माली आता है। राजा उससे प्रभावित हो उसके पूर्वजन्म के विषय में पूछते हैं। जिनदेव उसके पूर्वजन्म की कथा सुनाते हैं।
मगध मंडल में वर्द्धमान नामक ग्राम में एक गुणवान् ब्राह्मण और ब्राह्मणी युगल
१. जयति मुनि वृद वंदित पद युगल विराजमान सत्पद्मः।
विवध संघानुसासन विद्याना माश्रयो वीरः ॥१ न वह वपि तथा नीरं सरो नद्यादि संस्थितं। करकस्थं यथा स्तोक मिष्टं स्वादुश्च ? पीयते ॥३
प्रथम संधि की समाप्ति वाल कोलासु वि बोर वयण पसरंत कव्व पीउसं। कण्ण पुडएहि पिज्जइ, जहिं रस मुउलिय छेहिं ॥१ भरहालंकार रस लक्खणाई लक्खे पयाई विरयंती। वीरस्स वयणरंगे सरस्सई जयउ नच्चंती ॥२ .
२.१
अगुणा न मुणंति गुणं गुणीणो न संहति परगुणे दर्छ। वल्लह गुणा वि गुणीणो विरला कई वीर सारिछा ॥४.१ कइ वीर सरिस पुरिसं धरणी धरती कयथासि ॥६.१ विर कव्व तुला तुलियं, बुद्धी कसवट्टए कसेउणं। रस दित्तं पयछित्तं गिन्हह कव्वं सुव्वण्णं मे ॥९.१ मुहियएन कव्वु सक्कमि करेमि, इछमि भएहि सायरु तरेवि । पत्ता-अह महकइ रइउ पवंधु मई, कवणु चोज्ज जं किज्जइ ।
विद्धइ होरेण महारयणे, सुत्तण वि पइसिज्जइ।
२.