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प्राक्कथन
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प्रवाहित होती चली आ रही है। वह धारा संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के अनन्तर आज हिन्दी-साहित्य के रूप में हमें दिखाई देती है।
अपभ्रंश ग्रंथों के अध्ययन के लिए मुझे भारतीय विद्या भवन बम्बई, बम्बई म्यूज़ियम, आमेर शास्त्र भंडार, श्री वीर सेवा मंदिर सरसावा तथा अन्य जैन भंडारों में जाने का अवसर मिला। इन स्थानों के संचालकों ने जिस सौजन्य का परिचय दिया उसके लिए मैं उनका सदा कृतज्ञ रहूँगा । मैं श्री कस्तूरचन्द कासलीवाल, श्री परमानन्द जैन और श्री पन्नालाल जैन अग्रवाल का विशेष रूप से अनुग्रहीत हूँ जिन्होंने समय-समय पर हस्तलिखित ग्रंथों को जुटाने का प्रयत्न किया।
सौभाग्य से दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी-संस्कृत-विभाग के अध्यक्ष, महामहोपाध्याय डा. लक्ष्मीधर शास्त्री के निरीक्षण में दीर्घकाल तक इस विषय पर निरन्तर कार्य करने का मुझे अवसर प्राप्त हुआ। उनकी सहायता, सतत प्रेरणा और सत्परामर्शों के फलस्वरूप ही यह निबन्ध प्रस्तुत हो सका । उनका आशीर्वाद और वरद हस्त मुझ पर सदा ही बना रहा किन्तु जिस परिश्रम और लगन से इस कार्य में उनका सहयोग मिला है उसके लिए मैं उनका सदा कृतज्ञ और ऋणी रहूंगा।
__ जो निबन्ध दिल्ली विश्वविद्यालय की पी-एच० डी० की उपाधि के लिए प्रस्तुत किया गया था उसी को यत्र-तत्र संशोधित कर अब प्रकाशित कराया जा रहा है। इस अवधि में जो भी हस्तलिखित ग्रंथ एवं नवीन सामग्री उपलब्ध हो सकी है, उसका भी यथास्थान उपयोग किया गया है। एतदर्थ जिन विद्वानों का सहयोग प्राप्त हुआ है जिन लेखकों और ग्रंथकारों के लेखों एवं ग्रंथों का उपयोग किया गया है उन सब का मैं हृदय से आभारी हूँ।
__ मैं श्रद्धेय गुरुवर डा० बाबूराम सक्सेना का परम अनुग्रहीत हूँ जिन्होंने अत्यन्त कार्यव्यस्त रहते हुए भी इस ग्रंथ का आमुख लिखने की कृपा की। डाक्टर साहब न ग्रंथ को आद्योपान्त पढ़कर जो सुझाव दिये उनके अनुसार मूल निबन्ध में परिवर्तन और परिवर्धन किया गया है। आचार्य चन्द्रबली पांडे न भी अपना बहुमूल्य समय निकालकर जो सत्परामर्श देने की कृपा की उसके लिए मैं उनका हार्दिक आभार स्वीकार करता हूँ। - यह ग्रंथ दिल्ली विश्वविद्यालय की हिन्दी-अनुसंधान परिषद् के तत्त्वावधान में प्रकाशित हो रहा है, अतः मैं परिषद् के अध्यक्ष डा० नगेन्द्र का अत्यन्त आभारी हूँ। इस के प्रकाशक न बड़े प्रयास के साथ इस ग्रंथ की रूपरेखा को आकर्षक बनाया है अतः मैं उन्हें भी धन्यवाद देना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ। अपभ्रंश-भाषा से अपरिचित होने के कारण प्रूफरीडरों के यथासंभव प्रयत्न करने पर भी ग्रंथ में यत्र-तत्र अशुद्धियाँ रह गई हैं। इसके लिए मैं पाठकों से क्षमा चाहता हूँ। जन्माष्टमी, संवत् २०१३ विक्रमी
हरिवंश कोछड़