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अपभ्रंश-महाकाव्य
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रंभारुहिय सहिय गणमंडिय, णिय जोवण सिरीए अवरुंडिय । गहिय पसाहणि भल्लि व मारइं, अवलोयंतिहि जणु संघारइं। चउदस आहरणेहिं अलंकिया, सोलह सिंगारेहिं णउ संकिय । सहि लक्खणेहि संपुणिया, कर चरणहि सोहि कई वणिया। ताहे उरोय कणयणं कलसइं, काम करिंद कुंभगं उच्चई। कइ वणंतिहि पार ण पत्तई, णयण वयण मय छण ससिसरिसई । जाहे णियंव विवु उरु गरुयउ, पत्तलु पोटु णाहि अडुगहिरउ । सव्वसुहंकरि कि वणिज्जइं, जाहे णियंतिहे रइपि उक्खिज्जई। जाहे पुठ्ठि कवरी लोलंतिय, गंधागय णाई णिव चलंतिय । रत्तासोय पत णह चलणई, कल कंठि वीणा रव वयणइं। कत्थरी घुसिणहं पत्तावलि, गंधायट्ठिय णं भमराउलि । गायंती किण्णर मणु मोहइ, पच्चंतिहिं भरहंगुण सोहइ।
पडहहु वाएं अमरि ण पूरइ, लायणें वासवपिय जूरइ । पत्ता-सिरि पंडुर छत्तई, चमर पडतइं, वंधव सयहिं परियरिय । बहु पर मोहतिय, गयमल्हतिय, मोहग वल्लि व अवयरिय ॥
१२.१६ कवि की भाषा में अनुरगनात्मक शब्दों का प्रयोग भी मिलता है। देखिये--
झं झणण झणण झल्लरि वि सद्द, टं टं करत करि वीर घंट । कंसाल ताल सदइ करंति, मिहुणइं इव विहडिवि पुणु मिलंति । डम डम डम डमरु सद्दियाई, बहु ढोल निसाणई बज्जियाई॥
२१.९ कवि ने भिन्न-भिन्न सन्धियों में कड़वक के आरम्भ में दुवई, आरणाल, खंडयं, हेला, जंभेट्टिया, रचिता, मलय विलासिया, आवली, चतुष्पदी, सुन्दरी, वंसत्य, गाहा, दोहा, वस्तु बन्ध आदि छन्दों का प्रयोग किया है। २८ वीं संधि के कड़वकों के आरम्भ में कवि ने दोहा छंद का प्रयोग किया है । दोहे का कवि ने दोहउ और दोषक नाम भी दिया है । इसी सन्धि में कहीं कहीं कड़वक के आरम्भ में दोहा है और कड़वक चौपाई छन्द में है । उदाहरणार्थ'दोषकं
ता सिंघिय सीयल जलेण, विज्जिय चमर निलेणु । उठ्ठिय सोयानल तविय मइलिय अंसु जलेण ॥ हा हा णाह णाह कि जायउ, महु आसा तरु केणवि पायउ । हा सिंगारुभीउ महु भग्गउ, हा हा विहि किं कियउ अजोग्गउ।