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________________ १०८ अपभ्रंश-साहित्य कार रहे हैं....."धनुर्धारी महा भट तीक्ष्ण बाण छोड़ रहे हैं, दारुण भालों से विभिन्न हुए रक्त रंजित योद्धा गिर रहे हैं, कायर भयभीत हो रहे हैं। प्रचण्ड चित्त वाले योद्धाओं के गात्र टूक टूक हो रहे हैं। धनुष बाण हाथ में लिये भाला चलाने में समर्थ शूर प्रहार कर रहे हैं, क्रोध, संतोष, हास्य और आशा से युक्त धीर विचलित नहीं होते। __ग्रन्थ में कई स्थलों पर करुण रस की अभिव्यंजना भी दिखाई देती है। कंस वध पर परिजनों के करुण-विलाप का एक प्रसंग देखिये हा दइय दइय पाविट्ठ खला, पद अम्ह मणोहर किय विहला । हा विहि णिहीण पई काइकिउ, णिहि दरिसिवि तक्खणि चक्खु हिउ । हा देव ण बुल्लाह काइं तुहुं, हा सुन्दरि दरसहि किण्णु मुहु । हा धरणिहिं सगुण णिलयट्ठाहि, वर सेजहिं भरभवणेहि जाहिं। पइ विणु सुण्णउं राउलु असेसु, अण्णाहिउ हूवउ दिग्व देसु । हा गुण सायर हा स्वधरा, हा वहरि महण सोहग्ध घरा। घत्ता--हा महुरालावण, सोहियसंदण, अम्हहं सामिय करहिं । दुहिं संतत्तउ, करुण रुवंतउ, उछिवि परियणु संथवहि ।। मोह वश लोग युद्ध इत्यादि कुत्सित कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। इसी प्रसंग में कवि ने सुन्दर शब्दों में संसार को नश्वरता का वर्णन किया है वल रज्जु वि णासइ तकखणण, किं किज्जइ वहएण वि धणेण । रज्जु वि धणेण परिहीणु होइ, णिविसेण वि दीसइ पयडु लोउ । सुहि वंधव पुत्त कलत्त मित्त, ण वि कासुविदीसहिं णिच्चहत । जिम हुँति मरति असेस तेम, वुव्वु व जलि घणि विरिसंति जेम। जिमसउणि मिलिवितरुवरवसंति, चाउदिदसि णिय वसाणि जन्ति । जिम वहुपंथिय णावई चडंति, पुणु णियणिय वासहु ते वलंति। तिम इट्ठ समागम णिव्वडणु, धणु होइ होइ दालिद्द. पुण। पत्ता-सुविणासउ भोउ लहो वि पुणु, गव्वु करंति अयाण गर । संतोसु कवणु जोव्वण सियइं, हिं अत्थइ अणुलग्गजरा ॥९१.७. अर्थात् सबल राज्य भी तत्क्षण नष्ट हो जाता है, अत्यधिक धन से क्या किया जाय ?......"सुखी बांधव, पुत्र, कलत्र, मित्र नित्य किसके बने रहते हैं ? जैसे उत्पन्न होते हैं वैसे ही मेघ वर्षा से जल में बुलबुलों के समान, सब नष्ट हो जाते हैं। जिस प्रकार एक वृक्ष पर बहुत से पक्षी आकर एकत्र हो जाते हैं और फिर चतुर्दिक अपने अपने वास स्थानों को चले जाते हैं अथवा जिस प्रकार बहुत से पथिक ( नदी पार करते समय ) नौका पर आकर एकत्र हो जाते हैं और फिर अपने अपने घरों को चले जाते हैं, इसी प्रकार क्षणिक प्रियजन समागम होता है । कभी धन आता है कभी दारिद्र्य । भोग आते हैं और नष्ट हो जाते हैं फिर भी अज्ञ मानव गर्व करते हैं।
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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