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________________ धर्मपरीक्षा-४ कुरङ्गीवदनाम्भोज स्नेहावित्यप्रबोधितम्' । तस्यावलोकमानस्य स्कन्धावारोऽभवत्प्रभोः ॥५९ विषयस्वामिनाहूय भणितो बहुधान्यकः। स्कन्धावारं व्रज क्षिप्रं सामग्री त्वं कुरूचिताम् ॥६० स नत्वैवं करोमीति निगद्य गृहमागतः । आलिङ्ग्य वल्लभां गाढमुवाच रहसि स्थिताम् ॥६१ कुरङ्गि तिष्ठ गेहे त्वं स्कन्धावारं व्रजाम्यहम् । स्वस्वामिनां हि नादेशो लङ्घनीयः सुखाथिभिः ॥६२ कटकं मम संपन्नं स्वामिनस्तत्र सुन्दरि। अवश्यमेव गन्तव्यं परथा कुप्यति प्रभुः ॥६३ आकर्येति वचस्तन्वी सा बभाषे विषण्णधीः'। मयापि नाथ गन्तव्यं त्वया सह विनिश्चितम् ॥६४ शक्यते सुखतः सोढुं प्लोषमाणो' विभावसुः । वियोगो न पुनर्नाथ तापिताखिलविग्रहः ॥६५ ५९) १. विकसितम् । २. कटकम् । ३. राज्ञः । ६०) १. देशाधिपेन। ६४) १. व्याकुलधीः। ६५) १. दह्यमानो। २. क अग्निः । बहुधान्यकके अनुरागरूप सूर्यके द्वारा विकासको प्राप्त हुए उस कुरंगीके मुखरूप कमलका अवलोकन करते हुए राजाके कटकका अवस्थान हुआ ।।५९॥ तब उस देशके राजाने बहुधान्यकको बुलाकर उससे कहा कि तुम कटकमें जाओ और समुचित सामग्रीको तैयार करो ॥६०॥ उस समय वह राजाको नमस्कार करके यह निवेदन करता हुआ कि मैं ऐसा ही करता हूँ, घर आ गया। वहाँ वह एकान्तमें स्थित प्रियाका गाढ़ आलिंगन करके उससे बोला कि हे कुरंगी ! तू घरमें रहना, मैं कटकमें जाता हूँ, क्योंकि जो सुखकी इच्छा करते हैं उन्हें कभी अपने स्वामीकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं करना चाहिए ॥६१-६२।। हे सुन्दरी ! मेरे स्वामीका कटकं सम्पन्न है, मुझे वहाँ अवश्य जाना चाहिए, नहीं तो राजा क्रोधित होगा ॥६३॥ बहुधान्यकके इन वचनोंको सुनकर वह कृश शरीरवाली कुरंगी खिन्न होकर बोली कि हे स्वामिन् ! तुम्हारे साथ मुझे भी निश्चयसे चलना चाहिए ॥६४|| हे नाथ ! कारण इसका यह है कि जलती हुई अग्निको तो सुखसे सहा जा सकता है, किन्तु समस्त शरीरको सन्तप्त करनेवाला तुम्हारा वियोग नहीं सहा जा सकता है ।।६५।। ६१) ब मत्वैवं; अ निवेद्य । ६२) क ड स्कन्धावारे । ६३) इ नान्यथा । ६५) ब विभासुरः ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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