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धर्मपरीक्षा- ३
शक्तिरस्ति यदि वादनिर्जये त्वं कुरुष्व सह पण्डितैस्तदा । वादमेभिरनवद्यबुद्धिभिर्वादिदर्पदल नै द्विजोत्तमैः ॥८७ कोsपि याति न पुरादतो बुधो वादनिर्जययशोविभूषितः ' । मूढ नागभवनादपैति कः शेषमूर्धमणिरश्मिरञ्जितः ॥८८ airat' किमु पिशाचकी नुं किं यौवनोजितमदातुरो ऽसि किम् । येन दिव्यमणिरत्नभूषणस्त्वं करोषि तृणकाष्ठविक्रयम् ॥८९ सन्ति धृष्टमनसो' जगत्त्रये भूरिशो जनमनोविमोहकाः । त्वादृशो न परमत्र दृश्यते यस्तनोति बुधलोकमोहनम् ॥१० जल्पति स्म स ततो नभश्चरो विप्र किं विफलमेव कुप्यसि । कारणेन रहितेन रुष्यते पन्नगेन न पुनर्मनीषिणा ॥ ९१ काञ्चनासनमवेक्ष्य बन्धुरं कौतुकेन विनिविष्टवानहम् । भोः कियन् वियति जायते ध्वनिश्चेतसेति निहतश्च दुन्दुभिः ॥९२
८८) १. सन् । २. क प्राप्नोति ।
८९) १. क वातरोगवान् । २. अहो ।
९० ) १. दृढः धीरः ।
९१) १. पण्डितेन ।
९२) १. क मनोहरम् । २. वादितः ।
यदि तुममें वादको जीतनेकी शक्ति है तो फिर तुम निर्मल बुद्धिसे संयुक्त होते हुए वादिजनोंके अभिमानको चूर्ण करनेवाले ये जो श्रेष्ठ ब्राह्मण विद्वान् हैं उनके साथ वाद करो ॥८७॥
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मूर्ख ! इस नगर से कोई भी विद्वान् वादियोंके जीतनेसे प्राप्त यशसे विभूषित होकर नहीं जाता है । ठीक ही है- नागभवनसे कौन - सा मनुष्य शेषनागके मस्तकगत मणिकी किरणोंसे रंजित होकर जाता है ? अर्थात् कोई नहीं जा पाता है ॥ ८८ ॥
क्या तुम वातूल (वायुके विकारको न सह सकनेवाले ) हो, क्या पिशाचसे पीड़ित हो अथवा क्या जवानीके वृद्धिंगत उन्मादसे व्याकुल हो; जिससे कि तुम दिव्य मणिमय एवं रत्नमय आभूषणोंसे भूषित होकर घास व लकड़ियोंके बेचनेरूप कार्य को करते हो ? ॥८९॥
तीन लोकों में प्राणियों के मनको मुग्ध करनेवाले बहुत-से ढीठचित्त ( प्रगल्भ ) मनुष्य हैं, परन्तु तुम जैसा ढीठ मनुष्य यहाँ दूसरा नहीं देखा जाता है जो कि पण्डितजनको मोहित करता हो ॥९०॥
तत्पश्चात् वह • मनोवेग विद्याधर बोला कि हे विप्र ! तुम व्यर्थ ही क्रोध क्यों करते हो ? देखो, कारणके बिना सर्प क्रोधको प्राप्त होता है, परन्तु बुद्धिमान मनुष्य कारणके बिना क्रोधको प्राप्त नहीं होता ॥ ९१ ॥
इस रमणीय (या उन्नत-आनत ) सुवर्णमय आसनको देखकर मैं कौतुकसे उसके ऊपर
८७) क वादनिर्णये; ड वाददर्प विमोहिकाः । ९१ ) इ कुप्यसे ।
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८८) कडइ दुपैति । ९२ ) इ चेतसीति; क ड निहितः ।
८९) क ड 'भूषितस्त्वं । ९०) अब