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- धर्मपरीक्षा-३
निजगादापरा दृष्टास्ताणिकाः काष्ठिका मया। परासाधारणश्रीको नेदृशौ रूपिणौ परौ ॥६२ मन्मथाकुलितावादीदन्या तज्जल्पकाइक्षिणी । वयस्ये' काष्ठिकावेतौ क्षिप्रमाहूयतामिह ॥६३ तणकाष्ठं यथा दत्तस्तथा गृह्णामि निश्चितम् । इष्टेभ्यो वस्तुनि प्राप्ते गणना क्रियते न हि ॥६४ इत्यादिजनवाक्यानि शृण्वन्तौ चारुविग्रहो। ब्रह्मशालामिमौ 'प्राप्तौ सवामीकरविष्टराम् ॥६५ मुक्त्वा तणकाष्ठानि भेरीमाताडय वेगतः । एतौ सिंहाविवारूढौ निर्भयौ कनकासने ॥६६ क्षुभ्यन्ति स्म द्विजाः सर्वे श्रुत्वा तं भेरिनिःस्वनम् ।
कुतः कोऽत्र प्रवादीति वदन्तो वादलालसाः॥६७ ६३) १. क हे सखे। ६५) १. क मनोवेगपवनवेगौ। ६६) १. क सभायाम् । २ क उपविष्टौ ।
ही मानो वह कामदेव निश्चयसे दो प्रकारका हो गया है। अभिप्राय यह है कि वे दोनों मित्र उन स्त्रियोंके लिए साक्षात् कामदेवके समान दिख रहे थे ॥६१॥
दूसरी कोई स्त्री बोली कि मैंने घास और लकड़ियोंके बेचनेवाले तो बहुत देखे हैं, परन्तु अन्य किसीमें न पायी जानेवाली ऐसी अनुपम शोभाको धारण करनेवाले इन दोनोंके समान अतिशय सुन्दर घास एवं लकड़ियोंके बेचनेवाले कभी नहीं देखे हैं ॥६२॥ .
___अन्य कोई कामसे व्याकुल स्त्री उनके साथ सम्भाषण करनेकी इच्छासे बोली कि हे सखि ! तू इन दोनों लकड़हारोंको शीघ्र बुला ॥६३॥ . ये दोनों घास और लकड़ियोंको जैसे ( जितने मूल्यमें ) देंगे मैं निश्चयसे वैसे ( उतने मूल्यमें ) ही लूँगी। ठीक है-अभीष्ट जनोंसे वस्तुके प्राप्त होनेपर मूल्य आदिकी गिनती नहीं की जाती है ॥६४॥
उत्तम शरीरके धारक वे दोनों मित्र इत्यादि उपर्युक्त वाक्योंको सुनते हुए सुवर्णमय आसनसे संयुक्त ब्रह्मशाला (ब्राह्मणोंकी वादशाला) में जा पहुँचे ॥६५॥
यहाँ ये घास और लकड़ियोंको छोड़कर भेरीको बजाते हुए सिंहके समान निर्भय होकर वेगसे उस सुवर्णमय आसनपर बैठ गये ॥६६॥
उस भेरीके शब्दको सुनकर कौन वादी यहाँ कहाँसे आया है, इस प्रकार बोलते हुए सब ब्राह्मण वादकी इच्छासे क्षोभको प्राप्त हुए ॥६७।। ६२) क ड निजगाद परा; ब रूपिणौ परं। ६३) बहूयतामिति । ६७) ड ते भेरि'; इ तद्भरि ।