SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मपरीक्षा - ३ भावा' भद्रानुभूयन्ते ये हृषीकेः शरीरिणा । सरस्वत्यापि शक्यन्ते वचोभिस्ते न भाषितुम् ॥३५ यत्त्वां धर्ममिव त्यक्त्वा तत्र भद्र चिरं स्थितः । क्षमितव्यं ममाशेषं दुर्विनीतस्य तत्त्वया ॥३६ उक्तं पवनवेगेन हसित्वा शुद्धचेतसा । को धूर्तो भुवने धूर्तञ्च्यते न वशंवदैः ॥३७ दर्शयस्व ममापीदं यद्दृष्टं कौतुकं त्वया । संविभागं विना साधो भुञ्जते न हि सज्जनाः ॥३८ मित्रागच्छ पुनस्तत्र ममोत्पन्नं कुतूहलम् । प्रार्थनां कुर्वते मोघां' सुहृदः सुहृदां न हि ॥३९ मनोवेगस्ततो ऽवोचद् गमिष्यामः स्थिरीभव | उत्तालवशतः साधो पच्यते न ह्युदुम्बरः ॥४० विधाय भोजनं प्रातर्गमिष्यामो निराकुलाः । बुभुक्षाग्लानचित्तानां कौतुकं हि पलायते ॥४१ ३५) १. इन्द्रियविषयाः । २. इन्द्रियैः । ३७) १. मधुरविदैः; क पण्डितैः । ३९) १. विफलाम् । २. मित्राणि । ३. मित्राणाम् । ४द हे भद्र ! प्राणी इन्द्रियोंके द्वारा जिन वस्तुओंका अनुभव किया करता है उनको वचनोंके द्वारा कहनेके लिए सरस्वती भी समर्थ नहीं है ||३५|| भद्र ! धर्म के समान तुमको छोड़कर मैं दुर्विनीत जो वहाँपर बहुत काल तक स्थित रहा हूँ इस मेरे सब अपराधको तुम क्षमा करो || ३६ || यह सुनकर निर्मलचित्त पवनवेगने हँसकर कहा कि लोकमें कौन सा धूर्त अपने अधीन होकर भाषण करनेवाले ( अनुकूलभाषी ) धूर्तोंके द्वारा नहीं ठगा जाता है ? ॥३७॥ सज्जन ! तुमने जो कौतुक देखा है उसे मुझे भी दिखलाओ। कारण कि सज्जन पुरुष दूसरोंको विभाग करनेके बिना कभी किसी वस्तुका उपभोग नहीं किया करते हैं ||३८|| हे मित्र ! वहाँ फिरसे चलो, मुझे देखनेका अतिशय कुतूहल है। कारण कि मित्र जन मित्रोंकी प्रार्थनाको व्यर्थ नहीं किया करते हैं ॥ ३९ ॥ इसपर मनोवेग बोला कि हे मित्र ! स्थिर होओ, चलूँगा; क्योंकि, शीघ्रतासे कभी ऊमरका फल नहीं पकता है ||४०|| भोजन करके प्रातःकालमें निश्चिन्त होकर दोनों चलेंगे, क्योंकि भूखरूप अग्निकी चिन्तामें सब कौतुक भाग जाता है ॥४१॥ ३५) क इशरीरिणाम् । ३६) ब यस्त्वां .... यत्र भद्र चिरं स्थिरः; इ मया शेषं । इ पुन: सौख्यं; अ ममात्यन्तं । ४० ) अ गमिष्यामि इ स्थिरो भव; ब हघुदंबरं । अ चिंतायां । ३९) व मित्र गच्छ; ४१) ब गमिष्यामि ;
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy