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________________ ×૪ अमितगतिविरचिता अग्निहोत्रादिकर्माणि कुर्वन्तो यत्र भूरिशः । वसन्ति ब्राह्मणा दक्षा वेदा इव सविग्रहाः ॥२९ मीमांसां' यत्र सर्वत्र मोमांसन्ते ऽनिशं द्विजाः । विभ्रमा इव भारत्याः सर्वशास्त्रविचारिणः ॥ ३० अष्टादशपुराणानि व्याख्यायन्ते सहस्रशः । यत्र ख्यापयितुं धर्मं दुःख दोरुहुताशनम् ॥३१ तकं व्याकरणं काव्यं नीतिशास्त्रं पदे पदे । व्याचक्षाणैर्य दालीढं वाग्देव्या इव मन्दिरम् ॥३२ वेला मे महती याता पश्यतस्तत्समन्ततः । व्याक्षिप्तचेतसा भद्र गतः कालो न बुध्यते ॥३३ यदाश्चर्यं मया दृष्टं तत्राश्चर्यं निकेतने । विवक्षामि न शक्नोमि तद्वक्तुं वचनैः परम् ||३४ - २९) १. सशरीराः । ३०) १. वेदविचारणाम् । २. विचारयन्ति । ३. विलासाः । 1 ३१) १. क कथयितुं । २. काष्ठ । ३२) १. व्याख्यानं कुर्वद्भिः पुरुषैः वाचकैः । २. नगरं व्याप्तम्; क यत्स्वनगरं पण्डितैरालीढम् । ३३) १. मया; क व्यग्रचित्तेन । वहाँ बहुत बार अग्निहोत्र आदि कार्योंको करनेवाले चतुर ब्राह्मण शरीरधारी वेदों के समान निवास करते हैं ||२९|| उस नगर में समस्त शास्त्रोंका विचार करनेवाले ब्राह्मण सरस्वतीके विलासोंके समान सर्वत्र निरन्तर मीमांसा ( जैमिनीय दर्शन ) का विचार किया करते हैं ||३०|| जो धर्म दुःखरूपी लकड़ियोंको भस्म करनेके लिए अग्निके समान है उसकी प्रसिद्धिके लिए वहाँ अठारह पुराणोंका हजारों बार व्याख्यान किया जाता है ॥ ३१ ॥ स्थान-स्थानपर तर्क, व्याकरण, काव्य और नीतिशास्त्रका व्याख्यान करनेवाले विद्वानोंसे व्याप्त वह नगर साक्षात् सरस्वती देवीके मन्दिरके समान प्रतीत होता है ||३२|| भद्र ! उस नगरको चारों ओर देखते हुए मेरा बहुत-सा काल बीत गया । ठीक भी है - जिसका चित्त विक्षिप्त होता है वह बीते हुए कालको नहीं जान पाता है ||३३|| आश्चर्यके स्थानस्वरूप उस पाटलीपुत्र नगर में मैंने जो आश्चर्य देखा है उसको मैं कहना तो चाहता हूँ परन्तु वचनोंके द्वारा उसे कह नहीं सकता हूँ || ३४ ॥ २९) ब अग्निहोत्राणि; अ कुर्वन्ते । ३०) क शास्त्रविशारदाः । ३१ ) इ व्यापयितुं । ३२) अ वाग्देवीमिव । ३३) ब क ड इ महती जाता । ३४) इ किं वक्ष्यामि ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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